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26 साल बाद पहली बार त्रिकोणीय संघर्ष में फंसी दीदारगंज सीट.

Uttar Pradesh.आजमगढ़, 15 फरवरी=  मुलायम के गढ़ आजमगढ़ जिले में एक ऐसी विधानसभा सीट है जहां हमेशा हाथी दौड़ती रही है। वर्ष 1989 से से 2002 के मध्य जितने भी चुनाव हुए बस एक 1991 की राम लहर को छोड़ दिया जाय तो यहां हमेशा हाथी की ही दहाड़ सुनायी दी। लेकिन पिछले दो चुनाव से साइकिल हाथी से आगे निकल गयी है। 1991 की तरह एक बार फिर यह सीट त्रिकोणीय संघर्ष में फंसती दिखाई दे रही है। बाहुबली रमाकांत यादव के भाई की बहू अर्चना अगर मैदान मे रहती है तो लड़ाई और भी दिलचस्प होने की संभावना है। वैसे वर्तमान में बसपा यहां अपने गढ को बचाने के लिए तो सपा हैट्रिक के लिए जद्दोजहद कर रही है। वहीं भाजपा वर्ष 1991 के इतिहास को दोहराने के लिए परेशान है।

बात हो रही है दीदारगंज विधानसभा सीट की। वर्ष 1962 में इस सीट का गठन सरायमीर के नाम से हुआ था। तभी से यह सीट सुरक्षित थी। पहले चुनाव में यहां से पीएसपी के मंगलदेव विजयी रहे थे। अगले ही चुनाव यानि वर्ष 1967 में इसका नाम बदलकर मार्टीनगंज कर दिया गया। उस चुनाव में कांग्रेस के अर्जुन राम यहां से विजई रहे। 1969 में बीकेडी के बनारसी राम यहां से विजयी रहे। वर्ष 1974 में इसका नाम बदलकर फिर सरायमीर किया गया और चुनाव में बीकेडी के दयाराम भाष्कर ने जीत हासिल की। 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर दयाराम भाष्कर लगातार दूसरी बार विधायक बने। वर्ष 1980 यह सीट कांग्रेस के खाते में गई और लालसा राम विधायक बने।1985 में भी यहां कांग्रेस का दबदबा रहा और भीखा राम विधायक चुने गये।

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वर्ष 1989 में बसपा अस्तित्व में आयी और फिर यहां शुरू हुआ इस दल का एकछत्र राज। 1989 के चुनाव में बसपा के दयाराम भाष्कर यहां से विधायक चुने गये। इसके बाद वर्ष 1991 की राम लहर में बसपा को हार का सामना करना पड़ा। भाजपा के पतिराज सोनकर विधायक चुने गये। इसके बाद वर्ष 1993 में हुए चुनाव में बसपा के समई राम, वर्ष 1996 व 2002 में बसपा के हीरालाल विधायक चुने गये। 2002 के चुनाव के बाद से बसपा यहां नहीं जीती है। वर्ष 2007 के चुनाव में सपा के भोला पासवान यहां से विधायक चुने गये। वहीं वर्ष वर्ष 2012 विधानसभा चुनाव के पूर्व हुए परिसिमन में न केवल सीट को पहली बार सामन्य किया गया बल्कि नाम बदलकर दीदारगंज कर दिया गया।

वर्ष 2012 के चुनाव में बसपा ने यहां से पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर को मैदान में उतारा था तो सपा ने करीब 22 प्रतिशत मुस्लिम आबादी को देखते हुए मुस्लिम प्रत्याशी आदिल शेख पर दाव खेला था। वहीं उलेमा कौंसिल ने भूपेंद्र सिंह मुन्ना को मैदान में उतार कर बसपा का खेल बिगाड़ दिया था। कारण कि मुन्ना सिंह को सुखदेव का धुर विरोधी माना जाता था। मुन्ना ने 34137 मत हासिल किया और परिणाम रहा कि बसपा को अपने गढ़ में लगातार दूसरी बार हारना पड़ा। वर्ष 2017 में सपा और बसपा के उम्मीदवार तो वहीं होंगे लेकिन परिस्थितियां बदली होंगी।

कारण कि मुन्ना सिंह हाथी पर सवार हो चुके है और इनकोे सदर से टिकट मिलना तय माना जा रहा है। पार्टी में होने के कारण मुन्ना का वोट बैंक बसपा के साथ जाने की संभावना व्यक्त की जा रही है। वहीं भाजपा से बसपा के पूर्व राज्य मंत्री दर्जा प्राप्त कृष्णमुरारी विश्वकर्मा मैदान में हैं। यहां भाजपा के पूर्व सांसद रमाकांत यादव के भाई के बहू भाजपा ब्लाक प्रमुख अर्चना यादव ने बागी प्रत्याशी के रूप में मैदान में कूद गई हैं। इनके मैदान में आने से भाजपा का कम सपा का अधिक नुकसान होने की संभावना है। इससे यहां लड़ाई त्रिकोणीय हो गयी है।

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