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शिक्षा से दूर बच्चों के लिए शुरू करें ऑनलाइन क्लास

– अरविन्द मिश्रा

लॉकडाउन के पहले दिन से ऑनलाइन कक्षाओं की शैक्षणिक तंत्र में जिस प्रकार भागीदारी बढ़ी है, उसे लेकर शिक्षाविद् अलग-अलग मत व्यक्त कर रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि निजी स्कूल ऑनलाइन कक्षाओं के नाम पर संकट की घड़ी में फीस वसूली के नाम पर तमाशा भी खूब कर रहे हैं। खासतौर पर नर्सरी और पहली-दूसरी के बच्चों के लिए घंटों चलने वाली ऑनलाइन कक्षाएं अपने उद्देश्य को समाप्त कर रही हैं। इससे समाज में आर्थिक और सामाजिक भेदभाव की तस्वीर साफ देखने को मिल रही है। दरअसल ऑनलाइन कक्षाओं व दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम (डिस्टेंस लर्निंग) का मूल उद्देश्य शिक्षा से वंचित बच्चों को शैक्षणिक सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना है। लेकिन हमें डिजिटल एजुकेशन इंफ्रास्ट्रक्चर का जहां प्रभावी इस्तेमाल करना चाहिए, वहां अबतक नहीं किया। ऐसा ही एक क्षेत्र बाल मजदूर तथा ऐसे बच्चों का है, जिन्होंने किसी न किसी कारण से बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी। कोरोना संकट के बाद की मौजूदा परिस्थितियों में सरकार चाहे तो विषम परिस्थितियों में काम करने को मजबूर मासूम बच्चों को काम की जगह किताबें मुहैया करा सकती है। उन्हें शैक्षणिक तंत्र में शामिल करने का यह एक अच्छा अवसर साबित हो सकता है।

कोरोना संकट के बाद पैदा हुई स्थितियों में बाल श्रम के विरुद्ध लड़ाई और अधिक प्रासंगिक हो गई है। श्रमिकों का एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर पलायन जिस तरह बढ़ा है, वह निश्चित रूप से इस समस्या को और विकराल रूप देगा। विश्व बैंक से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाएं लगातार इस बात की ओर संकेत कर रही हैं कि अर्थव्यवस्था में प्राण फूंकने के तमाम प्रयासों के बाद भी रोजगार का संकट लंबे समय तक रहेगा। भारत में ही लगभग 5 करोड़ लोगों के अत्यधिक गरीब व्यक्तियों की सूची में शामिल होने की आशंका है। लॉकडाउन की वजह से पहले ही बड़ी संख्या में बच्चे मध्याह्न भोजन से वंचित हो चुके हैं। इससे गरीबी ही नहीं कुपोषण, शोषण और आपराधिक वृत्तियों की वृद्धि की नई चुनौतियां खड़ी होंगी।

भारतीय समाज के लिए नासूर बनती जा रही इस समस्या की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि कई बार आप और हम चाह कर भी खुद को असहाय पाते हैं। श्रम आधारित शायद ही कोई कार्य क्षेत्र हो जहां बच्चों की मुस्कान मजदूरी के तले दबकर अपना और देश का स्वप्न दांव पर न लगा रही हो। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के ताजा आंकड़े कहते हैं कि दुनिया भर में 15 करोड़ बाल श्रमिक हैं। जिनमें 48 प्रतिशत 5-11 वर्ष की आयु के हैं, वहीं 28 प्रतिशत 12-14 वर्ष आयु के तथा 24 प्रतिशत 15 से 17 आयु वर्ग के हैं। इनमें लड़कियों की संख्या भी कम नहीं है। कुल बाल श्रमिकों में 42 प्रतिशत लड़कियां हैं। गौर करने वाली बात यह है कि 71 प्रतिशत बाल मजदूर अकेले कृषि क्षेत्र में कार्यरत हैं। वहीं 11.9 प्रतिशत औद्योगिक प्रतिष्ठानों व 17.2 प्रतिशत सेवा में क्षेत्र से जुड़े हैं। भारत की बात करें तो 2011 की अंतिम जनगणना के अनुसार 1 करोड़ से अधिक बच्चे श्रम कार्यबल में शामिल थे। श्रम क्षेत्र में कार्य करने वाले कई अन्य संगठनों के मुताबिक मौजूदा समय में यह आंकड़ा लगभग 2 करोड़ बाल श्रमिकों तक पहुंच चुका है।

बच्चों के मूलभूत अधिकारों को लेकर किए जाने वाले दावों और हकीकत में कितना अंतर है, वह इस बात से पता चलता है कि देश में मौजूदा समय में 7 से 8 करोड़ बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित हैं, इनमें वह बच्चे भी शामिल हैं, जो किसी न किसी वजह से अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ने को मजबूर हुए। मुंबई, दिल्ली, सूरत, पुणे समेत अन्य महानगरों में औद्योगिक प्रतिष्ठानों में कार्य करने वाले असंगठित क्षेत्र के कामगारों के जीवन स्तर, उनके बच्चों की शैक्षणिक व स्वास्थ्य सुरक्षाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। जैसा कि आंकड़े कहते हैं कि देश में बाल श्रमिकों का एक बड़ा अनुपात कृषि व उससे जुड़े कार्यों में संलग्न है।

बीच में ही पढ़ाई छोड़कर मजदूरी करने वाले बच्चों को शैक्षणिक तंत्र में पुन: शामिल करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की प्रमुख अनुशंसाओं के साथ देश की सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था को ध्यान में रखकर निर्णय लेना होगा। सर्वप्रथम, श्रम व सामाजिक सुरक्षा से जुड़े विभागों के सहयोग से नगद प्रत्यक्ष हस्तांतरण (डीबीटी) जैसी योजनाओं के जरिए कोरोना संकट से सर्वाधिक प्रभावित वर्ग को मिलने वाली आर्थिक मदद को बढ़ाया जाए। समस्या और विकराल रूप ले इससे पूर्व बाल श्रमिकों के परिवारों को आजीविका के विकल्प मुहैया कराते हुए उन्हें आर्थिक सुरक्षा दी जा सकती है। मध्यम अवधि के उपायों के अंतर्गत बाल श्रम के तौर-तरीकों में आ रहे बदलवों को पहचान कर संगठित अपराध व मानव तस्करी पर रोक लगाने के सख्त उपाय करने होंगे। हमारे यहां बाल श्रम की रोकथाम न होने के पीछे सबसे बड़ा कारण श्रम विभाग, राज्य, केंद्रीय शिक्षा बोर्ड, नागरिक व सरकारी संगठनों के मध्य समन्वय का अभाव भी है, जिसे दूर किया जाना चाहिए।

कोरोना की आर्थिक मार झेल रहा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग जिसमें दिहाड़ी मजदूर से लेकर असंगठित कामगार आता है, वह इन दिनों गांवों में है। देश के कोने-कोने से बाल श्रमिकों के शहरों से गांव लौटने की तस्वीरें हमने देखी हैं। ऐसे में यदि प्रशासनिक इच्छाशक्ति हो तो स्थानीय प्रशासन को ऐसे बच्चों की पहचान कर उन्हें शैक्षणिक तंत्र में शामिल करने के लिए युद्धस्तर पर प्रयास करने होंगे।

इसमें कोई तो शक नहीं कि बड़ी संख्या में प्रवासी बाल श्रमिकों के पास आवश्यक दस्तावेज आदि नहीं होंगे, ऐसे में उन्हें इन कागजी अनिवार्यताओं से मुक्त रखकर बीच का विकल्प तलाशते हुए स्कूलों में भेजने की पहल करनी चाहिए। यह कार्य जिला प्रशासन और बाल अधिकारों के संरक्षण में लगे सक्षम प्राधिकारों के साथ सामाजिक सहभागिता के बिना पूरा नहीं हो सकता है। डिजिटल और ऑनलाइन माध्यमों से बाल श्रमिकों को शैक्षणिक तंत्र से जोड़ने की चमकदार तस्वीर जरूर पेश की जा रही है लेकिन देखना यह भी होगा कि ग्रामीण भारत में डिजिटल आधारभूत संरचना की स्थिति क्या है। 2017-18 में जारी एनएसएसओ के आंकड़े कहते हैं कि 10.7 प्रतिशत लोगों के पास ही लैपटॉप व कंप्यूटर मौजूद हैं। 23.4 प्रतिशत लोगों के पास ही इंटरनेट की सुविधा है। ऐसे डिजिटल एजुकेशन को बालश्रम उन्मूलन में कारगर हथियार बनाने से पहले उसकी पहुंच का दायरा भी बढ़ाना होगा।

अक्सर हमने देखा है कि हम योजनाएं तो बहुत बढ़िया बना लेते हैं लेकिन संसाधनों के अभाव में बेहतरीन व्यवस्थाएं भी ध्वस्त हो जाती हैं। समाज में बच्चों के मूलभूत अधिकारों के संरक्षण को लेकर राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग व जिला स्तर पर गठित चाइल्ड हेल्पलाइन की स्थिति यही है। संसाधनों के अभाव में कई बार इन संस्थाओं की स्थिति असहाय नजर आती है। ऐसे में गरीबी का दंश झेल रहे बच्चों को यदि शैक्षणिक तंत्र में सम्मिलित करना है तो शिक्षा के क्षेत्र में उपयोगी डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे ऑनलाइन क्लास और ई-लर्निंग कार्यक्रमों से उन्हें जोड़ना होगा। यह संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थायी विकास लक्ष्य की पूर्ति के नजरिए से भी सार्थक होगा, जिसमें 2025 तक विश्व को बाल मजदूरी से मुक्त कराने का आह्वान किया गया है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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