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यूपी में एआईएमआईएम के उतरने से मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी की आशंका

लखनऊ, 30 दिसम्बर =  सूबे में विधानसभा चुनाव-2017 कई मायनों में बेहद खास होंगे। समाजवादी पार्टी जहां अपने आन्तरिक विवाद को सुलझाने में ही असफल हो रही है और उसके सामने अपनी साख को बचाने की चुनौती है, वहीं भारतीय जनता पार्टी केन्द्र के बाद यूपी की सत्ता हासिल करने के लिए बेचैन है। बहुजन समाज पार्टी सत्ता के अपने पांच साल के वनवास के बाद अब किसी भी तरह दोबारा बहुमत में आना चाहती है, तो कांग्रेस यूपी में अपना अस्तित्व बचाने के लिए ही संघर्षरत है।

ऐसे हालात में वोटबैंक की लड़ाई बेहद अहम हो गयी है। इनमें अगर मुसलमानों की बात करें तो हैदराबाद के असदुद्दीन ओवैसी की आॅल इण्डिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने भी मैदान में उतरकर इस लड़ाई को रोचक बना दिया है। एआईएमआईएम मुस्लिम और दलित वोटबैंक के सहारे यूपी की सियासत को नया रंग देना चाहती है। उसके इस कदम से सपा, बसपा और कांग्रेस में खलबली है। खासतौर से बसपा के दलित वोटबैंक के खिसकने का डर है।

विधानसभा चुनाव को लेकर एआईएमआईएम ने इस बार सूबे की मुस्लिम बाहुल्य लगभग 125 सीटों पर प्रत्याशी उतारने की रणनीति बनायी है। पाटी के प्रदेश अध्यक्ष शौकत अली के मुताबिक एआईएमआईएम उत्तर प्रदेश में पिछले तीन से चार सालों से चुनाव की तैयारी कर रही है। इसकी बदौलत लगभग हर जिले में पार्टी का संगठन खड़ा हो गया है। 40 जिले में तो हमारी पकड़ बूथ स्तर तक हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में पार्टी की सदस्यता 10 लाख के ऊपर जाना इस बात का पुख्ता सूबत है कि एआईएमआईएम का संगठन दिनों-दिन और मजबूत होता जा रहा है। शौकत अली के मुताबिक शायद यही वजह है कि सपा उनकी पार्टी से डरी है। इसलिए जिला प्रशासन सरकार के दबाव में उनकी पार्टी की जनसभाओं को लेकर अड़ंगा लगाता है।

यूपी में जातीय समीकरणों पर नजर डालें तो प्रदेश में करीब 120 विधानसभा सीटें मुस्लिम बाहुल्य हैं। इनमें पश्चिम उत्तर प्रदेश की सहारनपुर, मुरादाबाद, मेरठ, संभल, अलीगढ़ और रामपुर जनपद शामिल हैं। इसके अलावा सूबे में करीब 142 सीट ऐसी हैं जिस पर मुस्लिम वोटर ही निर्णायक भूमिका में होते हैं। इनमें करीब 74 सीट पर मुसलमान 30 फीसदी या उससे भी ज्यादा हैं, जबकि 69 सीट के करीब सीटों पर मुस्लिम आबादी 20 और 30 प्रतिशत के बीच है। प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से करीब 140 सीट पर मुस्लिम आबादी 10 से 20 फीसदी के बीच है। एआईएमआईएम की निगाह इन्हीं विधानसभाओं पर है, जिसमें वह दूसरे दलों के वर्चस्व को खुली चुनौती दे सके।

एआईएमआईएम के हौसले इसलिए भी बुलन्द है, क्योंकि वर्ष 2002 के विधानसभा चुनावों में सपा को 55 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले थे। इसके बाद वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में यह आंकड़ा घटकर 45 फीसदी के करीब आ गया और 2012 में और भी घटकर 40 प्रतिशत ही रह गया। इसके विपरीत बहुजन समाज पार्टी की बात करें तो वर्ष 2002 से ही वह हर चुनाव में मुस्लिम वोटबैंक को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रही है। वर्ष 2002 के चुनावों में बसपा को 8 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले थे, जबकि वर्ष 2007 में यह आंकड़ा 17 प्रतिशत और वर्ष 2012 में 21 फीसदी पर पहुंच गया। कांग्रेस की बात करें तो वर्ष 2002 विधानसभा चुनावों में उसे 10 फीसदी मुसलमानों ने वोट दिए थे, जो वर्ष 2012 तक बढ़कर 19 प्रतिशत पर पहुंच गए।

एआईएमआईएम को लगता है कि वह मुसलमानों को यह बात समझाने में सफल हो सकती है कि अब तक जिन पार्टियों को मुसलमानों ने वोट दिया है, उन्होंने केवल उनका इस्तेमाल ही किया। इसलिए वह एक बार फिर उन पर भरोसा करके देखें। इसके लिए पार्टी चुनाव लड़ने वाली विधानसभाओं में हाइटेक रथ से अपना प्रचार करेगी। इसमें उसके चुनावी वायदे भी होंगे। इसके साथ ही पार्टी ने दलितों को अपने पाले में करने के लिए बसपा से गठबन्धन की कोशिश की है, लेकिन मायावती की ओर से सकारात्मक जवाब नहीं मिला। ऐसे में माना जा रहा है कि एआईएमआईएम अब अकेले ही अपनी रणनीति को अंजाम देगी।

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