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करुणानिधि के असाधारण योगदान के मद्देनजर घोषित किया राष्ट्रीय शोक

नई दिल्ली, 08 अगस्त (हि.स.)। द्रविड़ राजनीति के शीर्षस्थ नेता तमिलनाडु के भूतपूर्व मुख्यमंत्री एम.करुणानिधि के निधन पर एक दिन राष्ट्रीय शोक और पूरे राजकीय सम्मान से उनका अंतिम संस्कार सार्वजनिक जीवन में करुणानिधि के असाधारण योगदान के प्रति राष्ट्र की ओर से एक आभार था। 

अपवाद स्वरूप कुछ अन्य हस्तियों के निधन पर ऐसा किए जाने के उदाहरण हैं। इनमें वर्ष 1979 में जयप्रकाश नारायण, लार्ड माउंट बेटेन, वर्ष 1982 में शेख अब्दुल्ला, 1987 में एम.जी.रामचंद्रन, वर्ष 2005 में सुनील दत्त और वर्ष 2006 में बिसमिल्ला खां शामिल हैं। वर्ष 1997 के एक परिपत्र के अनुसार केंद्र स्तर पर सार्वजनिक अवकाश की घोषणा केवल वर्तमान राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के निधन पर ही हो सकती है। राष्ट्रीय शोक पर तिरंगा ध्वज झुका दिया जाता है और किसी सरकारी समारोह का आयोजन नहीं होता है।

हालांकि तमिलनाडु की राजनीति में करुणानिधि की धुर विरोधी जयललिता के निधन पर भी राष्ट्रीय शोक की घोषणा की गई थी, लेकिन अंतर यह था कि जयललिता उस समय मुख्यमंत्री पद पर आसीन थीं। करुणानिधि किसी पद पर नहीं थे। राजनीति में उनके 6 दशकों के लंबे जीवन और दक्षिण भारत के राजनीतिक परिदृश्य में उनकी अग्रणी भूमिका के लिए केंद्र सरकार ने यह घोषणा की। 

राजनीतिक पर्यवेक्षक इस संबंध में पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु और करुणानिधि के बीच तुलना कर रहे हैं। राजनीतिक अनुभव और मुख्यमंत्री कार्यकाल के लिहाज से ज्योति बसु का स्थान करुणानिधि के समकक्ष ही था। फिर भी वर्ष 2010 में जब ज्योति बसु का निधन हुआ तो राष्ट्रीय शोक की घोषणा नहीं की गई थी। इसका काऱण यह भी था कि बसु की पार्टी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट विचारधारा व्यक्ति पूजा के खिलाफ रही है तथा पार्टी की ओर से राष्ट्रीय शोक घोषित करने का कोई आग्रह भी नहीं किया गया था। बसु न केवल देश के सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले मुख्यमंत्री रहे हैं बल्कि पार्टी की वफादारी के कारण उन्होंने प्रधानमंत्री बनने तक के मौके को त्याग दिया। उनके निधन पर राष्ट्रीय शोक नहीं घोषित किया गया तो कई लोग आश्चर्यचकित थे क्योंकि वे तबके एम.जी. रामचंद्रन और अबके करुणानिधि के मुकाबले कमतर नहीं थे। 

तब ममता बनर्जी ने ज्योति बसु के निधन पर केंद्र से 3 दिनों का राष्ट्रीय शोक घोषित करने की मांग करके उसे दुविधा में डाल दिया था। वर्ष 1987 में तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम.जी रामचंद्रन के निधन पर कांग्रेस सरकार ने 7 दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा की थी। वर्ष 1987 में एम.जी. रामचंद्रन का सम्मान करने का कांग्रेस का निर्णय राजनीतिक था। तब पार्टी तमिलनाडु में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रही थी। इससे पहले वर्ष 1982 में शेख अब्दुल्ला की मृत्यु पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने न सिर्फ राष्ट्रीय शोक घोषित किया बल्कि उनके अंतिम संस्कार में भी भाग लिया था। तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने भी प्रोटोकाल को तोड़ते हुए अंतिम संस्कार में शामिल हुए। इससे पहले कोई कार्यरत राष्ट्रपति ने ऐसा नहीं किया था। 

वर्ष 1979 में चरण सिंह सरकार ने जयप्रकाश नारायण (जेपी) के लिए राष्ट्रीय शोक घोषित किया, जिन्होंने कभी भी कोई सरकारी पद नहीं रखा था। हालांकि जेपी का सम्मान करने का निर्णय आश्चर्यजनक नहीं था। गैर-कांग्रेस पार्टियों ने उन्हें 1977 के चुनावों में इंदिरा की हार के लिए अधिकतर श्रेय दिया। अल्पकालिक चरण सिंह सरकार ने भारत के आखिरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के लिए भी 7 दिनों के राष्ट्रीय शोक की घोषणा करके सभी को आश्चर्य में डाल दिया था। इससे विवाद भी बढ़ा, क्योंकि माउंटबेटन की मृत्यु पर उनके देश ब्रिटेन में कोई शोक नहीं मनाया गया। हालांकि बी.आर. अम्बेडकर, राम मनोहर लोहिया और एन.टी. रामाराव के निधन पर राष्ट्रीय शोक की घोषणा नहीं की गई जबकि पिछली कांग्रेस सरकार ने अभिनेता और पार्टी के सांसद सुनील दत्त और शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के लिए राष्ट्रीय शोक घोषित करके एक अलग तरह की मिसाल दी थी। पर्यवेक्षकों का मानना था कि जे.पी., एम.जी. रामचंद्रन और बिस्मिल्लाह देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार के प्राप्तकर्ता थे लेकिन वे इसके तहत नहीं आते हैं, क्योंकि उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। 

देखा जाए तो राष्ट्रीय शोक घोषित करने में असंगतता ने कई विवादों को जन्म दिया है। इससे बहुजन समाज पार्टी नाखुश थी, क्योंकि तब कांशीराम को भी नजरअंदाज कर दिया गया था और कई लोग आश्चर्यचकित हुए जब जनरल सैम मानेकशॉ का सम्मान रोक दिया गया, जिन्होंने 1971 के युद्ध में भारत को जीत दिलाई थी। बहरहाल, करुणानिधि के निधन पर परस्पर विरोधी राजनीतिक दलों की ओर से जिस तरह शोक श्रद्धांजलि प्रकट की गई, उससे यह जाहिर हो गया कि क्षेत्रीय स्तर पर सक्रिय राजनीतिक नेताओं और क्षेत्रीय अस्मिता के प्रति देश में कोई विरोध भाव नहीं है। आमतौर पर राजनीतिक विश्लेषक उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत, द्रविड़ बनाम गैर द्रविड़ और हिन्दी बनाम दक्षिण भारतीय भाषा का विवाद खड़ा करते हैं लेकिन करुणानिधि के निधन पर देश में व्याप्त शोक की भावना से यह भ्रांति दूर हो गई। 

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