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प्रभु की प्राप्ति आलीशान मंदिर बनवाने से नहीं, जन-जन की सेवा से होगी: स्वामी अड़गड़ानन्द जी महाराज

मुंबई = स्वामी अड़गड़ानन्द जी महाराज लीक से हटकर सोचते हैं और समाज के लिए कुछ करने वाले संन्यासी के रूप में प्रसिद्ध हैं। वे हिन्दू समाज को कुरीतियों और रूढ़ियों से मुक्त करने के पक्षधर हैं और उनका मानना है कि संकीर्णताओं से ऊपर उठकर ही हम धर्म की रक्षा कर सकते हैं। जैसे, यदि समुद्र पार करना पाप था तो हिन्दू हनुमान जी एवं राम जी की पूजा क्यों करते हैं? इसी प्रकार पूज्य शंकराचार्य जी की गिरफ्तारी के मामले में भी बहुत उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं। वे हमारे परम पूजनीय सन्त हैं। अन्तत: सत्य की ही विजय होगी, यह हमारा नि:संदिग्ध विश्वास है। हम चारों तरफ देख रहे हैं कि अनेक नेता जिनके ऊपर हत्याओं के आरोप हैं, बड़े-बड़े पदों पर हैं और शंकराचार्य जेल में। यह स्थिति किस बात का संकेत देती है, यह समझना चाहिए।

स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज सत्य की खोज में विचरण करते हुए 1955 में युगपुरुष परमहंस स्वामी परमानन्द जी की शरण में आए थे। तब उनकी आयु तेईस वर्ष थी। स्वामी परमानन्द जी का आश्रम मध्य प्रदेश के सतना जिले में चित्रकूट अनुसुइया नामक स्थान पर था, जो उन दिनों बियावान जंगल था। स्वामी जी वहीं साधनारत थे। अपने गुरुदेव के सान्निध्य में स्वामी अड़गड़ानंद जी भी साधना करने लगे। उन्हें अड़गड़ानंद नाम भी गुरुदेव ने ही दिया। विलक्षण प्रतिभा के धनी स्वामी अड़गड़ानंद जी ने हालांकि प्रारंभिक स्कूली शिक्षा भी पूर्ण नहीं की परन्तु उन्हें श्रीमद्भगवद् गीता सहित अनेक शास्त्र और उनकी व्याख्याएं कंठस्थ है। लेखन में अभिरुचि न होते हुए भी उन्होंने अपनी वाणी के बहुमूल्य योगदान से अनेक ग्रंथों की रचना की। स्वामी अड़गड़ानंंद जी का केन्द्र, मीरजापुर (उ.प्र.) के नगरीय क्षेत्र से दूर शक्तेशगढ़ में श्री परमहंस आश्रम नाम से विख्यात है।

अनादि काल से भारत का भाग्य विश्व गुरु पद ही है। विश्व ने सभ्यता, संस्कृति और धर्म का उपदेश भारत से ही प्राप्त किया था। परन्तु पिछले लगभग दो हजार वर्षों से यहां विकृतियों ने जन्म ले लिया है। ये विकृतियां धार्मिक हैं। सच्चे धर्मगुरुओं के अभाव और धर्म का कार्य अयोग्य लोगों द्वारा किए जाने के कारण ये विकृतियां आई हैं। उस समय राजा-महाराजाओं के दरबारों में ज्यादा चापलूसी कर जो लोग गुरु और सद्गुरु या राजगुरु की उपाधि प्राप्त कर गए और धर्म के नाम पर उन्होंने जो भी निर्णय ले लिया, उस राजा की सेना ने उसे जबरन क्रियान्वित किया। इससे ये विकृतियां रीति-रिवाज के रूप में जड़ें जमा गईं। यह वास्तव में धर्म नहीं है।

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धर्म की इन विकृतियों के कारण ही भारत का भाग्य भी विकृत हुआ। जात-पांत, छुआछूत भारत में थी ही नहीं। दरअसल, जातिगत आधार पर छुआछूत- भेदभाव पिछले दो हजार वर्षों में पनपा है। इसका कोई धार्मिक आधार नहीं है।

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