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लोकतंत्र को जिंदा रखा तो उसे मरने मत दो.

कांग्रेस ने बहुत दिनों बाद बेहद पते की बात कही है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि कांग्रेस ने लोकतंत्र को जिंदा रखा तभी तो गरीब परिवार से आने वाले नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन सके। धन्यवाद, लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए। ऐसे अनेक अवसर भी आए हैं जब कांग्रेस देश को आजाद कराने का श्रेय लेती दिखी है। अच्छा किया है तो उसकी प्रशंसा भी होनी चाहिए। इस देश पर छह दशक से अधिक समय तक कांग्रेस का एक छत्र राज्य रहा। केंद्र में ही नहीं, राज्यों में भी। ऐसे में देश और लोकतंत्र की आजादी को बनाए रखना भी तो उसी की जिम्मेदारी है। जो शासन करता है, वही लोकहित की भी चिंता करता है। इसमें नई बात क्या है जो कांग्रेस के धुरंधर नेता कहे जा रहे हैं। वैसे भी लोकतंत्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से सुरक्षित रहता है। जिस राज्य में जनता को अपनी बात रखने का अधिकार न हो, उसमें लोकतंत्र का महत्व अपनी प्रासंगिकता खो देता है। लोकतंत्र का अर्थ होता है जनता का तंत्र। लोकतंत्र का मतलब होता है विधि व्यवस्था का तंत्र। लोकतंत्र का तात्पर्य होता है विकास परंपरा को बनाए रखने का तंत्र। क्या कांग्रेस इस कसौटी पर खरा उतरी और यदि वह कैसा कर पाने में विफल रही है तो क्या उसे पूर्व की भांति सत्ता में बने रहने का हक है?

कांग्रेस को थोड़ा अतीत में भी जाना चाहिए। इंदिरा गांधी ने तो आपात काल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकार तक निलंबित कर दिए थे। क्या जनता के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर देने से लोकतंत्र की रक्षा हो जाती है। भारतीय जनता ने 1977 के लोकसभा चुनाव में इसका जवाब भी दिया था। इंदिरा गांधी जैसी लौह महिला प्रधानमंत्री को सत्ता से बाहर हो जाना पड़ा था। उस समय देश में जो बड़ा नारा गूंजा था, वह था- ‘ये देखो इंदिरा का खेल, खा गई राशन पी गई तेल।’ भ्रष्टाचार तब भी था और राजीव गांधी, मनमोहन सिंह के शासन में भी था। लूट और भ्रष्टाचार के तंत्र को तो लोकतंत्र नहीं कहते। यह वही कांग्रेस थी जिसने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले जनता के बुनियादी अधिकार अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगाने की कोशिश की थी। कांग्रेस के इस कदम के चुनावी अर्थ क्या थे ? कांग्रेस के इस गैर लोकतांत्रिक खेल में चुनाव आयोग साथ क्यों दे रहा था ? जिस सरकार ने चुनाव आयोग तक ने अपनी साख दांव पर लगा दी थी, क्या उस कांग्रेस के शासन में लोकतंत्र सुरक्षित था? चुनाव आयोग का काम साफ-सुथरे ढंग से चुनाव कराना होता है न कि कांग्रेस के दांव-पेंच का मोहरा बन जाना। कांग्रेस और चुनाव आयोग की मंशा चुनावी सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की थी और इसका उस समय विपक्ष ने प्रबल प्रतिरोध भी किया था। इसमें शक नहीं कि तानाशाही ही जनतांत्रिक व्यवस्था ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से नफरत करती है।

इस कसौटी पर कांग्रेस खुद को क्यों नहीं कसती? जब अमरीका और यूरोप के देशों में चुनाव सर्वेक्षणों पर रोक नहीं है और न कभी अमरीका-यूरोप में ऐसे सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की मांग हुई। अमरीका-यूरोप के चुनावों में सर्वेक्षण तो ज्यादा दिलचस्पी खींचते हैं और जय-पराजय के सटीक व तथ्यपूर्ण निष्कर्ष देते हैं। ऐसा हिंदुस्तान की सरजमीं पर क्यों नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में तो कभी भी अखबारों और चौनलों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश नहीं हुई। एक चौनल की भूमिका पर सरकार को थोड़ी नाराजगी हुई भी थी लेकिन वह आज भी सरकार के खिलाफ खुलकर खबरें देता है। क्या कांग्रेस ने आपात काल के दौरान अखबारों को अपनी बात कहने दिया था। नेताओं को अपनी बात कहने दी थी। आकाशवाणी पर तो उस समय खुलेआम सरकारवाणी और दूरदर्शन पर सरकार दर्शन होने के आरोप लगते रहे। क्या आज भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। परीक्षा में बैठने जा रहे बच्चों तक से बात करने में आज प्रधानमंत्री को रोक दिया जाता है। उसे चुनाव आयोग से अनुमति लेनी होती है।

क्या परीक्षार्थियों को निराशा के गर्त में डाल देना ही लोकतंत्र है? क्या परीक्षा से घबराकर या पेपर खराब होने पर छात्रों को अपनी जीवन लीला समाप्त करने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए या उन्हें अवसाद के गर्त से बाहर भी लाना चाहिए। जवाहर लाल नेहरू के बाद नरेंद्र मोदी दूसरे प्रधानमंत्री है जो बच्चों से सीधे संवाद करते हैं। वे रेडियो पर मन की बात में देश को आगे ले जाने की बात करते हैं। उनसे पहले के किसी प्रधानमंत्री द्वारा क्या कभी ऐसा किया गया। क्या देश को संवादहीनता के गर्त में धकेल देना ही लोकतंत्र की आजादी है। क्या जनता के हित की बात करना, उन्हें बेहतर करने के लिए प्रेरित करना, छोटी-छोटी बचत की बात करना लोकतंत्र को मजबूती नहीं देता?

मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन से पहले भी देश में चुनाव होते थे और कोई चुनाव आयोग को जानता तक नहीं था। उस समय वह दंतहीन, नखहीन संस्था थी लेकिन टीएन शेषन ने चुनाव आयोग को गरिमा दी। देश को बताया कि चुनाव आयोग क्यों जरूरी है। उसकी अहमियत क्या है। इसी कांग्रेस ने टीएन शेषन को कमजोर करने के लिए तीन चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की थी। क्या इससे लोकतंत्र मजबूत होता है। जिस नरेंद्र मोदी पर लोकतंत्र की हत्या करने और अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने के आरोप कांग्रेस लगा रही है। क्या उन्होंने उनके द्वारा नियुक्त मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी पर अविश्वास किया। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री थे, वे कांग्रेस की परंपरा का अनुकरण कर सकते थे। तीन नहीं तो दो चुनाव आयुक्त तो नियुक्त कर ही सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। कांग्रेस को पता था कि जनादेश उनके पक्ष में नहीं आने वाला है लेकिन जाते-जाते उन्होंने संवैधानिक महत्व के कई पदों पर अपने लोगों की नियुक्तियां की थी। क्या भाजपा नीत केंद्र सरकार ने सबको उनके पदों से हटा दिया। कांग्रेस द्वारा नियुक्त कांग्रेस प्रवक्ता पीएल पुनिया क्या आज भी अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष नहीं हैं?

नवीन चावला किस लिहाज से चुनाव आयुक्त पद के दमदार उम्मीदवार थे। नवीन चावला पर आपातकाल के दौरान हुए रक्तपात व उत्पीड़न का आरोप लगा था। वे पहले संजय गांधी-इन्दिरा गांधी के ‘किचन कैबिनेट’ के सदस्य थे और बाद में सोनिया गांधी और राजीव गांधी के किचेन कैबिनेट के सदस्य हो गए थे। नवीन चावला की पत्नी ने कांग्रेसी सांसदों के कोष से कई गुल खिलाए थे। यह भी किसी से छिपा नहीं है। नवीन चावला के चुनाव आयोग के अध्यक्ष होने पर देश की राजनीति में कितना हंगामा हुआ था, यह भी किसी से छिपा नहीं है और नवीन चावला ने किस तरह कांग्रेस को लाभान्वित किया था? यह सभी जानते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय तक में इसकी गूंज सुनाई पड़ी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कांग्रेस द्वारा बचाए गए लोकतंत्र की बदौलत प्रधानमंत्री तो बन गए लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में कांग्रेस ने उन्हें एक दिन भी बर्दाश्त नहीं किया। अन्यथा कांग्रेस को लोकतंत्र बचाओ रैली न निकालनी पड़ती। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को जंतर-मंतर तक कूच न करना पड़ता और इस क्रम में उन्हें गिरफ्तार नहीं होना पड़ता। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया था कि इनका एक-एक कदम लोकतंत्र की जड़ें खोद रहा है। उन्होंने कांग्रेस को बहती गंगा करार दिया था। आज भी कांग्रेस-सपा गठबंधन को गंगा-यमुना का मिलन कहा जा रहा है। भाजपा नेता इसे नालों का मिलन बता रहे हैं। ऐसे में क्या कहेगी कांग्रेस? पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने कहा था कि कांग्रेस भारत की आत्मा है। इसमें संदेह नहीं कि कांग्रेस भारत की आत्मा है। इसे पूरा देश मानता है लेकिन आत्मा तो शरीर में रहती है। जब वह शरीर से बाहर निकल जाती है तो शरीर शव हो जाता है। शव या तो दफना दिया जाता है अथवा जला दिया जाता है। आज हालात यह है कि कांग्रेस इस देश के मन से बाहर निकल गई है। उसने इतने भ्रष्टाचार किए हैं कि वह गंगा भी नहीं रह गई है। उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस के गठबंधन के दौरान सपा के कुछ नेताओं ने जिस तरह कांग्रेस को उसकी हैसियत बताई है, उसी से उसे अपना मूल्यांकन कर लेना चाहिए। क्या लोकतंत्र की रक्षा भ्रष्टाचारियों का साथ देने से होती है! कांग्रेस तभी तक पावन थी जब तक उसके पास गांधी, राजेंद्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री जैसी महान आत्माएं थी जिन्होंने अपनी धवल चादर ज्यों की त्यों रख दी लेकिन अपने दामन पर एक भी दाग लगने नहीं दिया।

कबीरदास के शब्दों में ‘जस की तस धर दीनी चदरिया।’ कांग्रेस का इतिहास त्याग का इतिहास रहा है लेकिन क्या कांग्रेस आज भी खम ठोंककर इस बात को कह सकती है कि उसने भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं दिया। उस पर एक दो आरोप हों तो गिनाया भी जाए। क्या लोकतंत्र इन्हीं मानदंडों पर जिंदा रहता है और परिपुष्ट होता है? कांग्रेस ने इस देश में राजनीति तो की है लेकिन समाज नीति नहीं की है। 62 साल किसी देश के विकास के लिए बहुत होते हैं लेकिन कांग्रेस और उसके नेता अपना घर भरते रहे। स्विटजरलैंड के बैंक खातों में पैसे जमा करते रहे। उस धन से क्या यह देश विकसित नहीं होता। कांग्रेस ने अगर अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह किया होता तो न उसके खिलाफ जनता पार्टी की सरकार बनती और न ही अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी की सरकार बनती। क्या देश की संसद को अपने गुस्से के लिए न चलते देने से लोकतंत्र की आजादी सुरक्षित होती है या सरकार पर गुस्से का आरोप लगाने भर से देश मजबूत हो जाता है। केंद्र सरकार विकास की बात करना चाहती है। गरीबी हटाने की बात करती है और आप यानी कांग्रेस भी वही करना चाहती है तो करने दो न देश का विकास। इससे तो कांग्रेस का ही सपना पूरा हो रहा है लेकिन सारा खेल श्रेय और प्रेय का है।

कांग्रेस को लगता है कि अगर भाजपा निरापद शासन करती रही तो उसका राजनीतिक भविष्य क्या होगा। खतरे में लोकतंत्र है या कांग्रेस, यह कायदे से समझने की जरूरत है। सच तो यह है कि कांग्रेस डरी हुई है और डरे हुए व्यक्ति का भय जल्दी नहीं निकलता। उसे भय से बाहर निकलना होता है। जागना होता है। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि ‘जौ सपनेहुं सर काटै कोई। बिनु जागै भ्रम दूर न होई।’ कांग्रेस को मुगालते से दूर जाना होगा। देश कांग्रेस की बदौलत आजाद इसलिए हुआ था कि उस समय कांग्रेस अकेली नहीं थी, उसके साथ पूरा देश था। जिसके साथ देश होता है उसे लोकतंत्र जीवित नजर आता है लेकिन हालात आज भिन्न है, आज कांग्रेस के साथ उसके कुछ समर्थक तो हैं लेकिन देश नहीं है। वह अवसादग्रस्तता की शिकार है, उसे सोचना होगा कि एक दौर था जब गठबंधन कांग्रेस के खिलाफ होते थे और आज कांग्रेस अपना वजूद बचाने के लिए सपा से गठबंधन कर रही है।

पहले सरकार बनाने के लिए गठबंधन होते थे और आज विपक्ष ही गठबंधन से बन रहा है। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा? लोकतंत्र का जितना नुकसान कांग्रेस ने किया है, उतना नुकसान किसी ने भी नहीं किया। कांग्रेस को आत्ममंथन करना होगा वर्ना उसे लोकतंत्र छीजता ही नजर आएगा।(हि.स)

                                                                                           सियाराम पांडेय ‘शांत’

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