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कोरोनाः चीन ने भारत-ऑस्ट्रेलिया को दिया अवसर

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

कोरोना और चीन ने भारत और ऑस्‍ट्रेलिया को एक-दूसरे के बेहद करीब ला दिया है। कोरोना की वजह से दुनिया के अधिकांश देश चीन से नाराज हैं। वे अपनी कंपनियों को चीन से हटाने के प्रयास में हैं। वे भारत को विश्वसनीय मित्र और उत्तम विकल्प के तौर पर देख रहे हैं। चीन इस बात को पचा भी नहीं रहा है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह चुके हैं कि कोरोना उनके देश के लिए लिए आपदा नहीं, अवसर है। चीन समझ नहीं पा रहा है कि आपदाकाल में भारत, जिसका भारी आर्थिक नुकसान हो चुका है, वह इतना सकारात्मक कैसे हो सकता है? पहले नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से बात की और फिर अपने ऑस्‍ट्रेलियाई समकक्ष स्कॉट मारिसन से। किसी देश के प्रमुख को समोसा और खिचड़ी का न्यौता मोदी ही दे सकते हैं। इस बात को जिनपिंग बेहतर जानते हैं। उन्हें पता है कि नरेंद्र मोदी अगर झूला झुला सकते हैं तो वे जिनपिंग को दुनिया की नजरों में गिरा भी सकते हैं। वांगचुंग अगर यह कह रहे हैं कि भारतीय चाहें तो चीन में विद्रोह करा सकते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। इसलिए चीन को बार-बार भारत की भावनाओं से खेलने से बाज आना चाहिए। भारत ऐसा देश है कि वह किसी भी व्यक्ति और देश के खिलाफ खुद पहल नहीं करता। बदला लेना या किसी से भी स्थायी बैर-भाव रखने की उसकी प्रवृत्ति नहीं है। विद्रोह कराने की वह कभी सोचता नहीं लेकिन अगर ठान ले तो उसके लिए कुछ असंभव भी नहीं।

जिस तरह भारत और ऑस्ट्रेलिया ने सामरिक समझौते किए हैं, उससे चीन अंदर तक हिल गया है। चीन अपनी साम्राज्यवादी और सीमा विस्तारवादी सोच के कारण कई देशों के निशाने पर है। कई देशों से उसके अपने सीमा विवाद हैं। लद्दाख में चीन और भारत के बीच सीमा विवाद को लेकर तनातनी हो रही है। चीन का सरकारी मीडिया अमेरिका पर भारत को उकसाने का आरोप तो लगा रहा है लेकिन चीन की सरकार को अपनी सीमा का अतिक्रमण करने की नसीहत बिल्कुल नहीं दे रहा। मतलब जैसा चीन, वैसी ही उसकी मीडिया। सच तो यह है कि चीन की वर्चस्ववादी अहंकारी नीतियों के चलते दुनिया के अनेक देश भारत के करीब आए हैं या आ रहे हैं। चीन अगर अब भी नहीं चेता तो उसे आर्थिक मोर्चे पर बड़ा झटका लग सकता है। चीन में जिनपिंग की स्थिति वैसे भी ठीक नहीं है। शायद इसीलिए वे राष्ट्रवाद का कार्ड खेल रहे हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने कहा है कि भारत ऑस्‍ट्रेलिया के साथ अपने संबंधों का समग्र रूप से तत्‍काल विस्‍तार को वचनबद्ध है। भारत-ऑस्‍ट्रेलिया वर्चुअल शिखर सम्‍मेलन में उन्होंने कहा है कि दोनों देशों के आपसी संबंधों का दर्जा बढ़कर अब सामरिक साझेदारी के स्‍तर का हो गया है। कोविड-19 के आर्थिक और सामाजिक दुष्‍प्रभावों से बाहर निकलने के लिए विश्‍व को समन्वित और सहयोग पर आधारित दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। उनकी मानें तो भारत-आस्‍ट्रेलिया संबंध हिंद-प्रशांत क्षेत्र और समूचे विश्‍व के लिए बेहद अहम हैं। दोनों देशों के बीच बातचीत से द्विपक्षीय संबंध मजबूत हुए हैं। भारत और आस्‍ट्रेलिया के बीच व्‍यापार और निवेश बढ़े हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि भारत-आस्‍ट्रेलिया संबंध काफी प्रगाढ़ हैं और संबंधों की यह प्रगाढ़ता हमारे साझा मूल्‍यों, साझा हितों, साझा भौगोलिक परिस्थितियों और साझा लक्ष्‍यों से आई है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए आस्ट्रेलिया की अहमियत का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 2014 में जब वे पहली बार देश के प्रधानमंत्री चुने गए तो उन्होंने आस्ट्रेलिया यात्रा की थी। इससे पहले 1986 में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ऑस्ट्रेलिया दौरा किया था। 38 साल तक सत्तारूढ़ कांग्रेस को आस्ट्रेलिया की सुध नहीं आई थी। नरेंद्र मोदी की 2014 की आस्ट्रेलिया यात्रा के बाद दोनों देशों के बीच कारोबारी माहौल बना था। वाणिज्यिक समझौते हुए थे। तत्कालीन आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री टोनी एबॉट ने भी भारत यात्रा की। दिल्ली में दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने आपसी सामरिक भागीदारी को सशक्त बनाने और उसे आपसी विश्वास के नये स्तर तक ले जाने की प्रतिबद्धता दोहराई थी। द्विपक्षीय असैन्य परमाणु सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर होने का स्वागत किया था। उस समझौते में भारत-ऑस्ट्रेलिया यूरेनियम करार भी शामिल था, जिससे ऑस्ट्रेलिया द्वारा भारत को यूरेनियम ईंधन बेचने और भारत को अपनी बढ़ती ऊर्जा संबंधी जरूरतें पूरा करने में ऑस्ट्रेलिया के सहयोग का रास्ता साफ हुआ था। ऑस्ट्रेलिया के पास दुनिया के यूरेनियम संसाधनों का लगभग 40 प्रतिशत भंडार है और वह लगभग 7 हजार टन यूरेनियम हर साल बेचता है। मोदी ने इस बात को न केवल समझा बल्कि भारत के समग्र हित में आस्ट्रेलिया को अपना जिगरी दोस्त बनाया।

ऑस्ट्रेलिया भी भारत और अमेरिका के साथ जापान की तरह ही त्रिपक्षीय संवाद का इच्छुक रहा है, लेकिन भारत और चीन की चिंताओं को समझते हुए वह ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहता था, जिससे उसके सामने सामरिक चुनौतियां उत्पन्न हों। लेकिन जूलिया लेगार्ड के समय से ही उसका नजरिया बदला था, जो अब व्यावहारिक धरातल पर पहुंच चुका है। चीन की कारस्तानियों से नाराज जापान और अमेरिका भारत के मित्र जोन में हैं इसलिए ऑस्ट्रेलिया भी अगर भारत के खिचड़ी-समोसे की दावत कुबूल कर रहा है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

हिलेरी क्लिंटन तो ‘फारेन पॉलिसी’ पत्रिका में बहुत पहले ही एक लेख में कह चुकी हैं कि ‘भारत भावी दुनिया की धुरी’ है। दरअसल, एशिया-प्रशांत में भारतीय भूमिका पर व्यापक दृष्टि रखने वाली हिलेरी क्लिंटन और उनकी एशिया टीम ने भारत-अमेरिका-जापान त्रिभुज एवं भारत-अमेरिका-जापान-ऑस्ट्रेलिया चतुर्भुज की रूपरेखा तय की थी। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से एशिया-प्रशांत क्षेत्र की रणनीतिक सक्रियता पूर्वापेक्षा अधिक बढ़ी है।

ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच मित्रता की एक वजह यह भी है कि आस्ट्रेलिया में भारतीय प्रवासियों की संख्या 2,95,000 है। इसमें अगर अस्थायी प्रवासियों को जोड़ दिया जाए तो यह संख्या करीब चार लाख के आसपास हो जाती है। वर्ष 2007-2011 के बीच ऑस्ट्रेलिया में भारतीय प्रवासियों की संख्या में 47 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। भारत 2013 में ऑस्ट्रेलिया में क्षेत्रीय भारतीय प्रवासी दिवस का आयोजन भी कर चुका है। 23 दिसंबर, 2019 को मेलबर्न में भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच ”स्वाभाविक साझेदारी” समेत कई मोर्चो पर सतत बढ़ोतरी देखने को मिली थी। मुख्य रूप से हिंद प्रशांत में चीन की बढ़ती सैन्य मौजूदगी को लेकर दोनों देशों की साझा चिंताओं के कारण द्विपक्षीय रक्षा संबंध मजबूत हुए थे। मुक्त व्यापार समझौते के बिना भी दोनों ओर का व्यापार वर्ष 2019 में 29 अरब ऑस्ट्रेलियाई डॉलर से अधिक रहा है। भारत ऑस्ट्रेलिया का चौथा सबसे बड़ा निर्यात बाजार है।

ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन भी भारत एवं ऑस्ट्रेलिया के संबंधों को ‘स्वाभाविक साझेदारी’ करार दे चुके हैं। वे तो भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के चतुष्पक्षीय गठबंधन की सराहना भी कर चुके हैं। ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच अप्रैल में हुए नौसैन्य अभ्यास के साथ हिंद प्रशांत में साझा समुद्री सुरक्षा हितों पर सहयोग नए स्तर पर पहुंच गया है। भारत में ‘ऑस्ट्रेलिया स्टेट एजुकेशन फोरम’ और ‘ऑस्ट्रेलिया-भारत खाद्य साझेदारी’ की स्थापना भी एक साल पहले हो चुकी है। कुल मिलाकर भारत और आस्ट्रेलिया जिस तेजी से आर्थिक और सामरिक मोर्चे पर दोस्ती के हाथ बढ़ा रहे हैं और एक-दूसरे की भावना को समझ रहे हैं, उससे चीन की छटपटाहट स्वाभाविक है। लद्दाख में सीमा पर सेना भेजकर वह फंस चुका है। अगर जल्द ही भारत से उसका विवाद न खत्म हुआ तो उसे आर्थिक और सामरिक दोनों ही मोर्चे पर भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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