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कोरोनाः देश को नई एकीकृत स्वास्थ्य नीति की जरूरत

– डॉ. अजय खेमरिया

कोरोना संकट के साथ भारत में एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली की आवश्यकता संजीदगी के साथ महसूस की जा रही है। भारत में अभी केंद्र और राज्यों के अलग- अलग स्वास्थ्यगत संस्थान और नीतियां है। इनमें आपस में कोई समन्वय भी नहीं है इसलिए उपलब्ध मानव संसाधन और ढांचागत सुविधाएं समेकित रूप से जरूरतमंद लोगों के लिए लाभकारी साबित नहीं हो रहे। हमारी पूरी राजव्यवस्था अपने नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देने के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन इसके कार्यान्वयन के स्तर पर इतनी विविधताएं हैं कि ये वेदनापूर्ण जटिलताओं का अहसास कराती है। खासकर जब कभी प्राकृतिक आपदा की कोरोना जैसी परिस्थितियों का हमें सामना करना पड़ता है। हकीकत यह है कि जनस्वास्थ्य की कोई राष्ट्रीय नीति आज समावेशी स्वरूप में हम 70 साल बाद भी निर्मित नहीं कर पाए हैं।

मौजूदा संकट से जो बुनियादी सबक हम सीख सकते हैं वह है “नवीन राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति” का निर्माण। बेहतर होगा जनस्वास्थ्य केन्द्रीय सूची में शामिल किया जाए और इससे जुड़ी सभी सह सबन्धित संस्थाओं को एकीकृत कर दिया जाए। वर्तमान में राज्यों के लोक स्वास्थ्य मंत्रालय अलग हैं, केंद्र का अलग। केंद्रीय और राज्य सरकारों के मेडिकल कॉलेज भी अलग। एम्स अलग कानून के दायरे में है। ईएसआईसी ,फैक्ट्री एक्ट, कोल माईनस, पीएसयू, पुलिस, आर्मी, पैरा मिलिट्री फोर्स, रेलवे, नेवी, एयर फोर्स, नगरीय निकायों के अलग अस्पताल और नियम कायदे हैं। सबकी स्थापना और उद्देश्य भारतीय नागरिकों को आरोग्य प्रदान करना ही है। सवाल यह है कि क्या 70 साल बाद भी जनस्वास्थ्य की संवैधानिक गारन्टी की जमीनी समीक्षा का आज समय नहीं आ गया है? राज्यों के प्रदर्शन को हम राजनीतिक तौर पर विश्लेषण करके नहीं छोड़ सकते हैं। अगर तमिलनाडू और केरल के मानक उच्च हैं तो बिहार और यूपी को केवल बीमारू तोहमत लगाकर जवाबदेह लोग किनारा कैसे कर सकते हैं। क्योंकि आज कोरोना की त्रासदी का लॉकडाउन पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है। बेहतर होगा कोरोना संकट से उबरने के बाद देश में सर्वसम्मति से इस बात पर बहस और विधान बनाया जाए कि जन स्वास्थ्य केंद्रीय सूची में लाया जाए। लोक स्वास्थ्य परिवार कल्याण और चिकित्सा शिक्षा को एक कर दिया जाए। जब मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया देश भर की चिकित्सा शिक्षा की नियामक संस्था के रूप में काम कर सकती है तो देश भर में मेडिकल कॉलेजों के संचालन के लिए केंद्रीय निकाय क्यों निर्मित नहीं किया जा सकता है। इंग्लैंड की तरह हमारे यहां भी एम्स को नेशनल हेल्थ सेंटर्स की तरह विकसित किया जा सकता है। हर एम्स को एक ब्रांच के शोध और प्रशिक्षण केंद्र के रूप में स्थापित किया जाना चाहिये।

देश में कार्डियक डॉक्टर तो संख्या में बढ़ रहे हैं लेकिन कैंसर और नेफ्रोलॉजी के चिकित्सकों की संख्या गिनती की है क्योंकि इस मामले में न पीजी सीट्स पर्याप्त है न किसी एम्स जैसे संस्थान में शोध की व्यवस्था। जबकि इनसे जुड़े मरीज बेतहाशा बढ़ रहे हैं। केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत हर जिला अस्पताल में कैंसर और डायलिसिस यूनिट स्थापित कर दी, राज्य सरकारों ने बढ़िया बिल्डिंग और मशीनरी भी उपलब्ध करा दी लेकिन 80 फीसदी सेंटर्स आज दक्ष स्टाफ/डॉक्टर्स के अभाव में काम नहीं कर रहे हैं। बेहतर होगा देश भर के जिला अस्पताल को केंद्रीय सरकार सीधे अपने नियंत्रण में लेकर उन्हें मेडिकल कॉलेजों में तब्दील कर दे। ऐसा करने से दो बड़ी बुनियादी समस्याएं खत्म हो जाएंगी। पहली तो देश भर में ग्रामीण इलाकों के लिए डॉक्टर्स की उपलब्धता सुनिश्चित होगी, दूसरा कॉलेजों में फैकल्टी की समस्या खत्म हो जाएगी।

इंग्लैंड में पीजी डाक्टर्स के लिए मैदानी अस्पतालों में लगभग ढाई साल काम करना होता है। वे एक निर्धारित समय पर मेडिकल कॉलेजों में थ्योरी क्लासेस लेने के लिए जाते हैं। शेष समय ग्रामीण इलाकों में एमबीबीएस के बाद सेवाएं देते हैं। व्यवहार में मेडिकल कॉलेजों में अधिकतर काम जूनियर डॉक्टर ही करते हैं इसलिये सबसे पहले जिला अस्पतालों में 300 बिस्तर के मान से मेडिकल कॉलेज स्वीकृत किए जाएं। यहां पहले से पदस्थ विशेषज्ञ चिकित्सकों को फैकल्टी के रूप में अधिमान्य किया जा सकता है क्योंकि अभी व्यवहार में भी राज्य सरकारें इन्ही डॉक्टरों को डिजिग्नेट प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर दिखाकर एमसीआई के निरीक्षण कराती है। एक ही प्रोफेसर को निरीक्षण के समय कई कॉलेजों में खड़ा कर दिया जाता है। यह एमसीआई की टीमों को भी पता रहता है लेकिन सिर्फ मानक पत्रावली पूरी करने के लिए यह तमाशे हर राज्यों में होते रहते हैं।यहां भी सरकारी विसंगति यह है कि जिन सीनियर डॉक्टर्स को कॉलेजों में दिखाया जाता है वे राज्य के लोक स्वास्थ्य परिवार कल्याण विभाग के मुलाजिम होते हैं और मेडिकल कॉलेजों के लिए अलग से चिकित्सा शिक्षा विभाग है, दोनों के अलग मंत्री अलग पीएस ,डायरेक्टर कमिश्नर हैं। इसलिये इन दोनों महकमों में कोई समन्वय नहीं है। नतीजतन जिन सरकारी अस्पतालों को कॉलेजों के साथ संबद्ध किया गया है वहां आम मरीजों को इस विभागीय टकराव से खासी दिक्कतें होती हैं क्योंकि अस्पतालों में आधा अमला लोक स्वास्थ्य का आधा मेडिकल एजुकेशन का रहता है।

मोदी सरकार ने 2014 के बाद से 75 नए मेडिकल कॉलेजों को इसी तर्ज पर देश भर में स्वीकृत किया है। फिलहाल देश में डब्ल्यूएचओ मानक के अनुरूप लगभग 4 लाख एमबीबीएस डॉक्टर्स की कमी है। इस कमी को दूर करने के लिए नए मेडिकल कॉलेज खोलने के खर्चीले प्रावधान के स्थान पर सभी जिलों के सरकारी अस्पताल को कॉलेजों में तब्दील करने से बेहतर कोई अन्य विकल्प नहीं है। चरणबद्ध तरीके से यहां यूजी पीजी की सीटें बढाई जा सकती हैं। साथ ही ईएसआई,अर्धसैनिक बल, रेलवे और दूसरे सरकारी निकायों के सर्वसुविधायुक्त अस्पतालों को भी एकीकृत विभाग के अधीन लाकर मेडिकल कॉलेजों में बदला जा सकता है। केंद्र सरकार केंद्रीय विद्यालयों, रेलवे, डाक की तरह स्वास्थ्य महकमे का संचालन भी इसके व्यापक पुनर्गठन के साथ कर सकती है। वैसे भी केंद्र अभी नीट और एमसीआई के माध्यम से देशव्यापी एकाधिकार तो इस क्षेत्र में रखता ही है। इसलिए व्यापक संवाद के बाद राज्यों को इस नीतिगत बदलाव के लिए राजी किया जा सकता है।

राज्य अक्सर केंद्रीय मदद में भेदभाव और अपर्याप्त आबंटन की शिकायतें करते रहते हैं। नई नीति में डॉक्टर्स का अखिल भारतीय सेवा संवर्ग स्थापित कर विशेषज्ञ चिकित्सकों को इंग्लैंड की तर्ज पर ग्रेडिंग सिस्टम देकर फैकल्टी, प्रैक्टिस, विशेषज्ञ की पात्रता निर्धारित कर सकता है। ऐसा करने से कॉलेजों में फैकल्टी की समस्या का समाधान भी हो जाएगा। पीजी के लिए तीन साल की अवधि में न्यूनतम ढाई साल ग्रामीण और कस्बाई स्वास्थ्य संस्थान में पदस्थापन को अनिवार्य किये जाने से सबको आरोग्य का लक्ष्य भी हासिल होगा। शुरुआती चरण में एमसीआई को उन 60 हजार डिप्लोमा डॉक्टर्स को फैकल्टी के रूप में काम करने की अनुमति दे देना चाहिये जो केवल एक रिसर्च पेपर और डिजरटेशन के अभाव में टीचिंग स्किल से दूर कर दिए गए हैं।

नए आयुर्विज्ञान कमीशन बिल में सरकार ने डिप्लोमा सीटों को खत्म कर पीजी में बदल दिया है। 6 मार्च को लोकसभा में स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने बताया कि मोदी सरकार ने 6 साल में 29185 सीटें स्नातक में बढ़ाई है। वर्तमान में एमबीबीएस की 80448 और पीजी की 40408 सीट्स देश में उपलब्ध है। भारत सरकार के पास देश में कुल कार्यरत एलोपैथिक डॉक्टरों का पूरा आंकड़ा तक उपलब्ध नहीं है। लोकसभा में जारी जवाब के अनुसार भारतीय चिकित्सा परिषद में केवल 52666 के पंजीयन हैं। दूसरी तरफ राज्य चिकित्सा परिषदों में मिलाकर कुल पंजीकृत डॉक्टरों की संख्या 1201354 है। सरकार भी मानती है कि इनमें से केवल 9.61 लाख ही सक्रिय हैं। समझा जा सकता है भारत में एकीकृत चिकित्सा निगरानी तंत्र की कितनी आवश्यकता है। सरकार डेढ़ लाख नये वेलनेस सेंटर विकसित कर रही है। बेहतर होगा एलोपैथी के साथ होम्योपैथी, आयुर्वेद, यूनानी पैथी को भी एकीकृत स्वास्थ्य विभाग के अधीन लाकर उपलब्धता के आधार पर एक ही परिसर में यह सुविधा भी सुनिश्चित करें।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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