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टैगोर का मानवतावादी दृष्टिकोण

– डॉ. नाज़ परवीन

अपनी रचना के मधुर शब्दों से तीन देशों को एक सूत्र में बांधने वाले गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को जोड़ासांको ठाकुरबाड़ी, कलकत्ता में देवेन्द्रनाथ टैगोर और सारदा देवी जी के घर हुआ था। देवेन्द्रनाथ टैगोर समाजिक, आर्थिक और बौद्धिक दृष्टि से समृद्ध थे। पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर हिन्दू दार्शनिक धर्म सुधारक थे, बड़े भाई विजेन्द्रनाथ एक दार्शनिक और कवि थे, दूसरे भाई सत्येन्द्रनाथ इण्डियन सिविल सेवा में शामिल होने वाले पहले भारतीय थे और एक अन्य भाई जितेन्द्रनाथ संगीतकार एवं नाटककार थे, बहन सुवर्ण कुमारी देवी कवियत्री एवं उपन्यासकार थी। रविन्द्रनाथ टैगोर का पूरा परिवार बौद्धिक सम्पदा से भरा-पूरा था। इसलिए उनका बचपन साहित्य की सम्पन्नता में रचा-बसा रहा। पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर से विरासत में प्रकृति से जुड़ाव एवं लगाव प्राप्त हुआ, जो उनके विचारों एवं रचनाओं में नज़र आता है। बाल्यकाल में आठ वर्ष की अवस्था में ही साहित्य से लगाव के कारण उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी और सोलह वर्ष की आयु तक कहानियां एवं नाटक लिखना आरम्भ कर दिया। बहुआयामी प्रतिभा के धनी रविन्द्रनाथ टैगोर मानवतावादी विचारों के महान रचनाकार थे। इतिहास में दर्ज उनकी कलम की रचना-भाव आज भी प्रासंगिक हैं।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का प्रकृति, शिक्षा, साहित्य, संगीत, कला और मानवता से अटूट रिश्ता था। समकालीन सामाजिक समस्याओं को दुनिया के रंगमंच पर उकेरने का मानवीय कार्य रवीन्द्रनाथ टैगोर ने किया इसलिए लोग उन्हें विश्वगुरु एवं गुरुदेव की उपाधि से सम्बोधित करते हैं। सन् 1913 में इन्हें अपनी रचना गीतांजली के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। नोबेल पुरस्कार पाने वाले न सिर्फ भारत अपितु एशिया के पहले व्यक्ति बनने का गौरव भी हासिल किया। भारतीय राष्ट्रगान जन-गन-मन के रचनाकार गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक और रचना ’आमार सोनार बांग्ला’ बंगलादेश का राष्ट्रगान बनी। उन्होंने इसे 1905 में बंगाल के पहले विभाजन के समय लिखा, 1971 में इसे राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार कर लिया गया। श्रीलंका का राष्ट्रगान ’नमो नमो माता’ आनंद समराकून ने लिखा, वह विश्व भारती विश्वविद्यालय में टैगोर के छात्र थे। उन्होंने गुरुदेव से प्रभावित होकर इस गीत की रचना की।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने शब्दों और संगीत से तीनों देशों को एक सूत्र में बांधने का काम किया। एक सदी गुजर जाने के बाद भी उनकी रचनाएं आज भी दुनिया की अलग-अलग भाषाओं में पढ़ी जाती हैं। बंगला साहित्य के लिए उनकी रचनाएं किसी बहार से कम नहीं हैं। उनकी कविताएं, उपन्यास, रचनाएं, समसामयिक घटनाओं पर आधारित हैं, जो आज भी समाज पर सटीक बैठती हैं। उस दौर के समाज में बाल-विवाह, दहेज प्रथा, शारीरिक सुन्दरता और कुरूपता जैसे प्रश्न आम थे। जिन्हें उन्होंने अपने शब्दों से समाज के समक्ष रखा, जो समाज से इन बुराइयों को निकालने का प्रेरणास्रोत बने। उन्होंने शिक्षा, साहित्य, संगीत, चित्रकारी हरेक क्षेत्र में कला की नयी परिभाषा गढ़ी। इनका संगीत और साहित्य मानवीय भावनाओं के विभिन्न रूपों का वर्णन करता है। रेखाचित्र और चित्रकला के माध्यम से इन्होंने ग्रामीण भारत के दूर-दराज इलाकों के आदिवासी, किसानों के चेहरे को दुनिया के सामने खूबसूरती से तराशा, जिससे उन्हें एक अलग पहचान मिली।

रवीन्द्रनाथ टैगोर शब्दों के जादूगर थे, उनकी कहानियों में जीवन की जटिलताओं का समावेश था। उनकी लेखनी की कायल फिल्मी दुनिया भी थी। उनकी रचनाओं पर कई हिट फिल्में भी बनी जिन्हें लोगों ने दिल की गहराईयों में उतारा। उनकी कहानियां मानवता से परिपूर्ण हैं, आम जनमानस, परिवार, समाज, महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों की समस्याओं को परिभाषित करती है।

उनके द्वारा शान्ति निकेतन की स्थापना का उद्देश्य ही वासुदैव कुटुम्बकम से भरा-पूरा था। उनका कहना था कि भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध और ईसाई धर्म का साथ-साथ रहना है। उनकी देशभक्ति भौगोलिक सीमाओं से परे, सम्पूर्ण मानवता के साथ तालमेल बैठाने वाली थी। इनके भाई सत्येन्द्रनाथ चाहते थे कि रवीन्द्र उच्च शिक्षा प्राप्त करें और वकालत में महारत हासिल करें लेकिन परिवार की लाख कोशिश उन्हें स्वदेश से दूर न रख पायी। इग्लैण्ड में पढ़ई पूरी करने गये लेकिन वहां इनका मन न लगा और वापस अपने देश आ गए, साहित्य की सेवा में लग गये। इनकी रचनाऐं मानव कल्याण एवं सेवा भाव से लबालब हैं।

रवीन्द्रनाथ टैगोर सामाजिक मानवीय सम्बंधों को गहराई से रेखांकित करते हैं, मानवता के कल्याणकारी भावनात्मक दृष्टिकोण आम जनमानस की समस्याओं की गहरी छाप छोड़ते हैं। उनकी रचनाओं में पत्नी का पत्र, भिखारिन, त्याग, विविधा, चोखर बाली, मृणाल की चिटठी, अतिथि, अनमोल भेंट, अनाथ, अपरिचिता, पिंजर, सीमान्त, विदा, समाज का शिकार, कंचन, खोया हुआ मोती, नई रोशनी, गूंगी, अन्तिम प्यार से, धन की भेट, काबुलीवाला आदि अनेकानेक रचनाओं के माध्यम से समाज मानवीय समस्याओं को परिभाषित करने का प्रयास किया। उनकी रचनाओं में मानवीय संदेश का रहस्य आज भी आत्मा को छू लेने का काम करता है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना काबुलीवाला मानवीय सम्बन्धों की छाप छोड़ती कहानी है, जिसमें दूरदराज से आया एक गरीब फेरी वाला काबुली पठान एक नन्हीं बच्ची मिनी में अपनी बेटी की छवि देखता है। बातूनी मिनी उसमें अपना दोस्त, मिनी की मां का समाज-चिंतन करना, कहानी को रहस्य से संवेदनशीलता के चरम पर ले जाने का अद्भुत प्रयास नज़र आता है। कहानी का अन्त मिनी के पिता द्वारा मिनी की शादी की जरूरतों में कटौती करके काबुलीवाला को उसकी बेटी से मिलने के लिए जो कि मिनी की हमउम्र है, काबुल जाने के लिए मानवीय मदद करता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियों में मानवीयता की अनूठी मिसाल रहती है, जो वर्तमान में भी प्रासंगिक है। रविन्द्रनाथ टैगोर का मानववाद व्यापक था। उनकी रचनाएं पीड़ितों, शोषितों और समाज के वंचित तबके से मानवता के भाव व्यक्त करती हैं। उनकी रचनाधर्मिता कर्म प्रधान जीवन की साधना में हमें मानव के प्रति संवेदनशील और सहज रहने की सीख देने वाली है, जो सम्पूर्ण मानवता के प्रति तादात्म्य स्थापित करती है। रविन्द्रनाथ टैगोर की मानवतावादी दृष्टि न केवल भारत अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिए प्रेरणास्रोत है।

(लेखिका एडवोकेट हैं।)

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