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सीतापुर में अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा पांच सौ वर्ष पुराना दीपावली मेला

सीतापुर । सीतापुर से नैमिषारण्य मार्ग पर मात्र 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रामकोट कस्बा की पहचान भी गंगासागर तीर्थ से आज भी होती है। रामकोट के गंगासागर तीर्थ पर दीपावली मेला सैकड़ों वर्ष से लगता आ रहा है। कभी यह मेला बड़े स्तर पर लगता था लेकिन आज यह तीन दिन के सीमित दायरे में सिमट चुका है।

मेले का शुभारंभ पांच सौ वर्ष पूर्व रामकोट रियासत के तत्कालीन राजा हरदेव बक्श सिंह ने कराया था। उन्होंने विशाल गंगासागर तीर्थ तथा इसके चारों कोनों पर विशाल शिव मंदिरों का भी निर्माण कराया था। तीर्थ की दीवारों से लेकर मंदिर के गर्भगृह में नक्काशीदार देवी देवताओं की विविध आकृतियां लोगों को आकर्षित करती थी। तीर्थ व मंदिर का पुराना वैभव स्थापत्य कला का कभी बेजोड़ नमूना था। सदियों प्राचीन यह धरोहर उपेक्षा से रसातल की ओर जाती रही।

यही कारण है कि गंगासागर तीर्थ वर्तमान अवस्था में जीर्ण शीर्ण हाल में पहुंच चुका है। इसके पुरुष व महिला घाट तो विलुप्त होने के कगार पर हैं। रियासतों के दौर में कभी इस तीर्थ पर हाथियों को भी स्नान कराने के लिए लाया जाता था आज हाथियों के स्नान के लिए बना घाट भी अंतिम सांसें गिन रहा है। चारों कोनों पर बने शिवालयों में दो मंदिर रामेश्वरम मंदिर व विश्वनाथ मंदिर ही बचा है। कभी प्रशासन ने स्थानीय रियासत को इस धार्मिक स्थल का विकास कराने के लिए प्रस्ताव दिया था। लेकिन रियासत ने इसकी मंजूरी नहीं दी। बाद में रियासत के स्तर से भी सुंदरीकरण के कोई प्रयास नहीं हुए। जिस कारण तीर्थ व मंदिर अपने हाल पर उपेक्षा के दंश के शिकार होकर रह गए।

तीर्थ स्थित रामेश्वरम मंदिर का आज भी विशेष महत्व है। यहां पूजा अर्चना के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। मंदिर में वर्ष भर रुद्राभिषेक व रामचरित मानस पाठ होते रहते हैं। मंदिर में स्थापित विशेष प्रकार का शिवलिंग भी श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। दीपदान व आतिशबाजी इस मेले का विशेष आकर्षण रहता है ।दीवापली वाले दिन सायंकाल हवन पूजन के साथ मेले का शुभारंभ होता है। मेले का मुख्य आकर्षण दीपदान व आतिशबाजी का कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम दीपावली के अगले दिन होता है। इस दिन पूरे गंगासागर तीर्थ को हजारों दीपकों से सजाया जाता है। पूरे तीर्थ के चारों ओर सीढ़ियों पर दीपक रखे जाते हैं। जल में भी दीपदान किया जाता है।

इसके साथ ही सभी मंदिरों को भी दीपकों से सजाया जाता है। जिस कारण इस तीर्थ की छटा निहारते ही बनती है आस पास गांवों से हजारों लोग कार्यक्रम देखने आते हैं। दीपदान के बाद आतिशबाजी होती है। कस्बे की मशहूर आतिशबाजी का नजारा देखते ही बनता है। इसके अगले दिन मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। इसी के साथ मेले का समापन होता है लेकिन सुंदरीकरण का अभाव, स्थायी देखरेख की व्यवस्था न होना एक बड़ी समस्या है। मेले का आयोजन मौजूदा ग्राम प्रधान के स्तर से होती है। जिले के प्रशासन व सत्ताधारी पार्टी के नेताओं की इस मेले को लेकर विशेष रुुचि न लेने के कारण भी मेला आज विलुप्त होने के कगार पर आ गया है।

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