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भारतीय अर्थव्यवस्था में दुग्ध उत्पादों का योगदान

– प्रमोद भार्गव

दुनिया में दूध उत्पादन में अव्वल होने के साथ भारत दूध की खपत में भी अव्वल है। बावजूद इन पशुपालकों की गिनती देश की आर्थिकी में नहीं की जाती है। इन्हें और मछुआरों को सामान्य किसानों में ही शामिल कर लिया जाता है। नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज में इनकी भी सुध ली गई है। 2 लाख करोड़ रुपए के ऋण इन्हीं पशुपालकों को दिए जाएंगे। तय है, इस राशि से पशुपालन का ढांचागत विकास होगा। हालांकि इन मवेशियों और इनके पालकों का वास्तव में ठीक से संरक्षण करना है तो वन संरक्षण अधिनियम में सुधार कर पशुओं को आरक्षित वनों, राष्ट्रीय उद्यानों और अभ्यारणयों में घास चरने की अनुमति देनी होगी। इससे एक साथ दो फायदे होंगे, एक तो ये जंगली घास, फल, फूल और पत्तियां खाएंगे तो दूध का स्वाभाविक रूप में उत्पादन बढ़ेगा। नतीजतन देश की आबादी को पौष्टिक आहार मिलेगा, जिससे बीमारियां भी कम होंगी। दूसरे, जो पशुधन सड़कों पर दुर्घटनाओं में रोजाना बड़ी संख्या में मर रहा है, उसे जीवनदान मिल जाएगा। फिलहाल देश में 18.61 करोड़ टन दूध का उत्पादन होता है। इसकी गरिमामयी हकीकत है कि भारत दूध उत्पादन के क्षेत्र में 20 प्रतिशत भागीदारी के साथ विश्व में पहले स्थान पर है। साथ ही प्रतिवर्ष इसका उत्पादन 7.4 प्रतिशत की दर से बढ़ भी रहा है। इस कारण इस व्यापार पर कई देशों की निगाहें टिकी हैं।

देश के प्रत्येक नागरिक को औसतन 290 ग्राम दूध रोजाना मिलता है। इस हिसाब से कुल खपत प्रतिदिन 45 करोड़ टन दूध की खपत हो रही है। जबकि शुद्ध दूध का उत्पादन करीब 18.61 करोड़ टन ही है। मसलन दूध की कमी की पूर्ति सिंथेटिक दूध बनाकर और पानी मिलाकर की जाती है। यूरिया से भी दूध बनाया जा रहा है। दूध की लगातार बढ़ रही मांग के कारण मिलावटी दूध का कारोबार गांव-गांव फैलता जा रहा है। बहरहाल मिलावटी दूध के दुष्परिणाम जो भी हों, इस असली-नकली दूध का देश की अर्थव्यवस्था में योगदान एक लाख 15 हजार 970 करोड़ रुपए का है। दाल और चावल की खपत से कहीं ज्यादा दूध और उसके सह उत्पादों की मांग लगातार बनी रहती है। साल 2018 में देश में दूध का उत्पादन 6.3 प्रतिशत बढ़ा है, जबकि अंतरराष्ट्रीय वृद्धि दर 2.2 फीसदी रही है। दूध की इस खपत के चलते दुनिया के देशों की निगाहें इस व्यापार को हड़पने में लगी हैं। दुनिया की सबसे बड़ी दूध का कारोबार करने वाली फ्रांस की कंपनी लैक्टेल है। इसने भारत की सबसे बड़ी हैदराबाद की तिरुमाला दूध डेयरी को 1750 करोड़ रुपए में खरीद लिया है। इसे चार किसानों ने मिलकर बनाया था। भारत की तेल कंपनी ऑइल इंडिया भी इसमें प्रवेश कर रही है।

बिना किसी सरकारी मदद के बूते देश में दूध का 70 फीसदी कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है। इस कारोबार में ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। लेकिन पारंपरिक ज्ञान से न केवल वे बड़ी मात्रा में दुग्ध उत्पादन में सफल हैं बल्कि इसके सह उत्पाद दही, मठा, घी, मक्खन, पनीर, मावा आदि बनाने में भी माहिर हैं। दूध का 30 फीसदी कारोबार संगठित ढांचा, मसलन डेयरियों के माध्यम से होता है। देश में दूध उत्पादन में 96 हजार सहकारी संस्थाएं जुड़ी हैं। 14 राज्यों की अपनी दूध सहकारी संस्थाएं हैं। देश में कुल कृषि खाद्य उत्पादों व दूध से जुड़ी प्रसंस्करण सुविधाएं महज दो फीसदी हैं किंतु वह दूध ही है जिसका सबसे ज्यादा प्रसंस्करण करके दही, घी, मक्खन, पनीर आदि बनाए जाते हैं। इस कारोबार की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इससे सात करोड़ से भी ज्यादा परिवारों की आजीविका जुड़ी है। जिनकी आबादी 12 करोड़ के करीब है। रोजाना दो लाख से भी अधिक गांवों से दूध एकत्रित करके डेयरियों में पहुंचाया जाता है। बड़े पैमाने पर ग्रामीण सीधे शहरी एवं कस्बाई ग्राहकों तक दूध बेचने का काम करते हैं।

जीवनदायी दूध में मिलावट कोई नहीं बात नहीं है। हमारी ज्ञान परंपरा में शुद्ध दूध में थोड़ा बहुत पानी मिलाकर पीने का प्रचलन है। जिससे दूध को पचाने में आसानी हो। लेकिन लोकसभा में केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री हर्षवर्धन ने दूध में मिलाए जाने वाले जिन हानिकारक तत्वों की जानकारी दी है, वह हैरान करने वाली है। बाजार में मिलने वाला 68 प्रतिशत दूध मिलावटी है। इसमें यूरिया, कास्टिक सोडा, डिटर्जेंट पाउडर, कृत्रिम चिकनाई, सफेद रोगन और सफेद पेंट तक मिलाया जा रहा है। तय है, इस तरह की अखाद्य वस्तुएं जब जीवनदायी दूध में मिलाई जाएंगी तो देश का युवा होता बचपन स्वस्थ्य कैसे रहेगा। वैसे दूध केवल बच्चों, किशोर और युवाओं का ही आहार नहीं है। दूध प्रौढ़ और वृद्ध भी खूब पीते हैं। वह इसलिए क्योंकि दूध और शहद प्रकृति से मिले ऐसे पेय पदार्थ हैं जिनमें आहार के संपूर्ण पौष्टिक गुण होते हैं। ऊंटनी के दूध की मांग आजकल केवल इसलिए बढ़ रही है क्योंकि उसमें रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता अधिक है। यह दूध जलन व जीवाणु-विषाणु रोधी तो होता ही है, इसमें रक्षात्मक प्रोटीन की मात्रा भी अधिक होती है। जिन लोगों को गाय, भैंस, बकरी के दूध से एलर्जी होती है, उन्हें यह दूध बेहतर साबित होता है। पूरी दुनिया में मधुमेह के रोगियों का शर्करा स्तर नियंत्रित रखने के लिए इस दूध की मांग बढ़ रही है। साफ है, दूध ऊर्जा, स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत लाभदायी है किंतु जब विषैले तत्वों को मिलाकर दूध बेचा जाएगा, तब वह भयंकर बीमारियों का सबब बनेगा ही।

इस व्यवसाय पर अमेरिका समेत अन्य देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की निगाहें टिकी हैं। अमेरिका की इस मंशा को समझने के लिए भारत और अमेरिका के बीच होने वाले आयात-निर्यात को समझना होगा। 2018 में दोनों देशों के बीच 143 अरब डॉलर यानि 10 लाख करोड़ का व्यापार हुआ था। इसमें अमेरिका को 25 अरब डॉलर का व्यापार घाटा हुआ है। इसकी भरपाई वह दुग्ध और पॉल्ट्री उत्पादों का भारत में निर्यात करके करना चाहता है। इस नाते उसकी कोशिश है कि इन वस्तुओं व अन्य कृषि उत्पादों पर भारत आयात शुल्क घटाने के साथ उन दुग्ध उत्पादों को बेचने की छूट भी दे जो पशुओं को मांस खिलाकर तैयार किए जाते हैं। दरअसल अमेरिका में इस समय दुग्ध उत्पादन तो बढ़ रहा है लेकिन उस अनुपात में कीमतें नहीं बढ़ रही हैं। दूसरे अमेरिकी लोगों में दूध की जगह अन्य तरल पेय पीने का चलन बढ़ने से दूध की खपत घट गई है। इस कारण किसान आर्थिक बद्हाली के शिकार हो रहे हैं। यह स्थिति तब है जब अमेरिका अपने किसानों को प्रति किसान 60,600 डॉलर, मसलन 43 लाख रुपए की वार्षिक सब्सिडी देता है। इसके उलट भारत में सब मदों में मिलाकर किसान को बमुश्किल 16000 रुपए की प्रतिवर्ष सब्सिडी दी जाती है। ऐसे में यदि अमेरिकी हितों को ध्यान में रखते हुए डेयरी उत्पादों के निर्यात की छूट दे दी गई तो भारतीय डेयरी उत्पादक अमेरिकी किसानों से किसी भी स्थिति में प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे। नतीजतन डेयरी उत्पाद से जुड़े जो 12 करोड़ लघु और सीमांत भारतीय पशुपालक परिवार हैं, वे दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हो जाएंगे। आत्मनिर्भरता का पर्याय बना डेयरी उद्योग चौपट हो जाएगा। भारत में प्रतिवर्ष 18.61 करोड़ टन दूध का उत्पादन होता है। इसी वजह से इन उत्पादकों की मासिक आय लगभग 9000 रुपए है। देश की 30 लाख करोड़ रुपए की कृषि जीडीपी में दूध व पॉल्ट्री क्षेत्र की भागीदारी 30 प्रतिशत है। साफ है, हमें किसी अन्य देश से दुग्ध उत्पादों के आयात की जरूरत ही नहीं है।

फिलहाल भारतीय नियमों के अनुसार यदि भारत किसी देश से दुग्ध उत्पादों का आयात करता है तो उसके निर्माता को यह प्रमाणित करना होगा कि जिन मवेशियों के उत्पाद भेजे जा रहे हैं, उन्हें किसी दूसरे जानवर के आंतरिक अंगों एवं मांस आदि तो नहीं खिलाए जाते हैं। यह नियम 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय से लागू है। हालांकि भारत में ऑनलाइन ई-व्यापार के जरिए मांसयुक्त आहार बिकता है। इसे बूचड़खानों के व्यर्थ हुए अवशेष से बनाया जाता है। अमेरिका में पशुओं के लिए मांसाहार मीट पैकिंग व्यवसाय का सह-उत्पाद है। इसे दूसरे जानवरों को खिलाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। दरअसल बूचड़खानों में जानवरों को मारते वक्त; (खासकर गोवंश) उनका खून जमा लिया जाता है। फिर उस खून को धूप या हीटर पर सुखाकर एक विशेष प्रकार का चारा बना लिया जाता है। इसे ही ब्लड मील कहते हैं। दुधारू पशुओं के बेहतर स्वास्थ्य और उनसे ज्यादा दूध उत्पादन के लिए यह मांसयुक्त आहार खिलाया जाता है। इस चारे को लाइसीन नाम के एमिनो एसिड का अच्छा स्रोत माना जाता है। गायों के शरीर में मिलने वाले प्रोटीन में करीब 10 तरह के जरूरी एमिनो एसिड होते हैं, जिनमें से दो बेहद अहम हैं, लाइसींस और मिथियोनाइन। गायें अपने चारे से प्रोटीन नहीं सोखती हैं क्योंकि वे अलग-अलग एमिनो अम्ल सोखने में सक्षम होती हैं। इसलिए उनके चारे में ब्लड मील और मक्का मिलाया जाता है। ब्लड मील लाइसींस का स्रोत है और मक्का मिथियोनाइन का बेहतर स्रोत है।

फिलहाल अमेरिका चीज, पनीर भारत में बेचना चाहता है। इस चीज को बनाने की प्रक्रिया में बछड़े की आंत से बने एक पदार्थ का इस्तेमाल होता है। इसलिए भारत के शाकाहारियों के लिए यह पनीर वर्जित है। गो-सेवक व गऊ को मां मानने वाला भारतीय समाज भी इसे स्वीकार नहीं करता। हमारे यहां गाय, भैसें भले ही कूड़े-कचरे में मुंह मारती फिरती हों लेकिन दुधारू पशुओं को मांस खिलाने की बात कोई सपने में भी नहीं सोच सकता। बहरहाल दूध से जुड़ी अर्थव्यवस्था को यथास्थिति में बनाए रखना आवश्यक है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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