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मेंहदी हसनः गुलों में रंग भरे बादे-नौ-बहार चले

पुण्यतिथि पर विशेष

– रमेश सर्राफ धमोरा

मेंहदी हसन का नाम सुनते ही जेहन में उनकी गायिकी गूंजने लगती है। गजल और मेहंदी हसन एक-दूसरे के पर्याय माने जाते रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे मेंहदी हसन दुनिया में आये ही गाने के लिये थे। उनके निधन के साथ ही गजल गायकी की दुनिया में जो खालीपन आया, उसे कभी भरा न जा सकेगा। 13 जून 2012 को पाकिस्तान के कराची शहर में उनका निधन हुआ। अपने पीछे वे करोड़ों चाहने वालों के लिए अपनी गायकी की खुशनुमा दुनिया छोड़ गए।

पाकिस्तानी गजल गायक मेंहदी हसन का भारत से विशेष लगाव रहा था। उन्हें जब भी भारत आने का मौका मिला वे दौड़े चले आते थे। राजस्थान में शेखावाटी की धरती उन्हें अपनी ओर खींचती रही थी। यहां की मिट्टी से उन्हे सैदव विशेष प्रकार का लगाव रहा था इसी कारण पाकिस्तान में आज भी मेंहदी हसन के परिवार में सबलोग शेखावाटी की मारवाड़ी भाषा में बातचीत करते हैं। मेहंदी हसन ने सदैव भारत-पाकिस्तान के मध्य एक सांस्कृतिक दूत की भूमिका निभाई तथा जब-जब उन्होंने भारत की यात्रा की तब-तब भारत-पाकिस्तान के मध्य तनाव कम हुआ व सौहार्द का वातावरण बना।

मेंहदी हसन का जन्म 18, जुलाई 1927 को राजस्थान में झुंझुनू जिले के लूणा गांव में अजीम खां मिरासी के घर हुआ था। देश के बंटवारे के वक्त पाकिस्तान जाने से पहले उनके बचपन के 20 वर्ष गांव में ही बीते थे। मेंहदी हसन को गायन विरासत में मिला। उनके दादा इमाम खान बड़े कलाकार थे जो उस वक्त मंडावा व लखनऊ के राजदरबार में गंधार, ध्रुपद गाते थे। मेंहदी हसन के पिता अजीम खान भी अच्छे कलाकार थे। इस कारण उस वक्त भी उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। बचपन में मेंहदी हसन को गायन के साथ पहलवानी का भी शौक था। लूणा गांव में मेंहदी हसन अपने साथी नारायण सिंह व अर्जुन लाल जांगिड़ के साथ कुश्ती के दांवपेंच आजमाते थे।

1978 में मेंहदी हसन जब अपनी भारत यात्रा पर आये तो उस समय गजलों के एक कार्यक्रम के लिए वे राजकीय मेहमान बनकर जयपुर आए थे। तब उनकी इच्छा पर प्रशासन द्वारा उन्हें उनके पैतृक गांव झुंझुनू जिले के लूणा ले जाया गया था। कारों का काफिला जब गांव की ओर बढ़ रहा था तो रास्ते में उन्होंने अपनी गाड़ी रुकवा दी। गांव में सड़क किनारे एक टीले पर छोटा-सा मंदिर बना था, जहां वे रेत में लोटपोट होने लगे। उस समय जन्मभूमि से ऐसे मिलन का नजारा देखने वाले भी भावविभोर हो उठे थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे मां की गोद में लिपटकर रो रहे हों। उन्होंने लोगों को बताया कि बचपन में यहां बैठकर वे भजन गाया करते थे। जिन लोगों ने मेंहदी हसन को नहीं देखा, वे भी उन्हें प्यार और सम्मान करते हैं। शायद ऐसे ही वक्त के लिए मेंहदी हसन ने यह गजल गाई है- मोहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे।

1993 में मेहंदी हसन एकबार पुनः अपने गांव लूणा आये मगर इस बार अकेले नहीं बल्कि पूरे परिवार सहित। इसी दौरान उन्होने गांव के स्कूल में बनी अपने दादा इमाम खान व मा अकमजान की मजार की मरम्मत करवायी व पूरे गांव में लड्डू बंटवाये थे। आज मजार बदहाली की स्थिति में वीरान और सन्नाटे से भरी है। यह मजार ही जैसे मेंहदी हसन को लूणा बुलाती रहती थी।

पाकिस्तान जाने के बाद भी मेहंदी हसन ने गायन जारी रखा। वे अपने परिवार के पहले गायक थे जिसने गजल गाना शुरू किया थ। 1952 में वे कराची रेडियो स्टेशन से जुड़कर अपने गायन का सिलसिला जारी रखा तथा 1958 में वे पूर्णतया गजल गाने लगे। उस वक्त गजल का विशेष महत्व नहीं था। शायर अहमद फराज की गजल- रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ- से मेंहदी हसन को पहली बार अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली। इस गजल को मेंहदी हसन ने शास्त्रीय पुट देकर गाया था। मेहंदी हसन ध्रुपद, ख्याल, ठुमरी व दादरा बड़ी खूबी के साथ गाते थे। इसी कारण लता मंगेशकर कहा करती हैं कि मेंहदी हसन के गले में सरस्वती बसती हैं। पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है जैसी मध्यम सुरों में ठहर-ठहरकर धीमे-धीमे गजल गाने वाले मेंहदी हसन केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देश जैसी राजस्थान की सुप्रसिद्व मांड को भी उतनी ही शिद्दत के साथ गाया है। उनकी राजस्थानी जुबान पर भी उर्दू जुबान जैसी पकड़ थी।

मेंहदी हसन को गजल गायकी का राजा माना जाता है। उन्हें खो साहब के नाम से भी जाना जाता है। वैसे तो गजल के इस सरताज पर पाकिस्तान गर्व करता है मगर भारत में भी उनके मुरीद कुछ कम नहीं हैं। मेंहदी हसन को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। जनरल अयूब खान ने उन्हें तमगा-ए इम्तियाज, जनरल जिया उल हक ने प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस और जनरल परवेज मुशर्रफ ने हिलाल-ए-झम्तियाज पुरस्कार से सम्मानित किया था। इसके अलावा भारत ने 1979 में सहगल अवॉर्ड से सम्मानित किया।

मेंहदी हसन की झुंझुनू यात्राओं के दौरान उनसे जुड़े रहे नरहड़ दरगाह के पूर्व सदर मास्टर सिराजुल हसन फारुकी बताते थे कि मेंहदी हसन साहब की झुंझुनू जिले के नरहड़ स्थित हाजिब शक्करबार शाह की दरगाह में गहरी आस्था थी। वो जब भी भारत आये तो नरहड़ आकर जरूर जियारत करते रहे । मशहूर कव्वाल दिलावर बाबू का कहना है कि यह हमारे लिये बड़े फख्र की बात है कि उन्होने झुंझुनू का नाम पूरी दुनिया में अमर किया। वक्त के साथ उनके सभी साथी इस दुनिया को छोड़कर जा चुके हैं। लेकिन गांव के दरख्तों, कुओं की मुंडेरों और खेतों में उनकी महक आज भी महसूस की जा सकती है। लूणा गांव की हवा में आज भी मेंहदी हसन की खुशबू तैरती है मगर उसे महसूस करने वाले लोग अब नहीं रहे।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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