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दुर्लभ प्रजाति के 139 कछुओं सहित दो तस्कर गिरफ्तार

इटावा, 14 नवम्बर (हि.स.)। उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में वन विभाग और पुलिस की सख्ती के बावजूद दुलर्भ प्रजाति के कछुओं की तस्करी थमने का नाम नहीं ले रही है। इटावा मुख्यालय के फ्रेंड्स कालोनी पुलिस ने मुखबिर की सूचना पर लोकासई गांव में दो तस्करों को गिरफ्तार धान के खेतों से बोरे में बंद दुर्लभ प्रजाति के 139 कछुए बरामद करने का दावा किया है।

एएसपी जितेन्द्र कुमार श्रीवास्तव ने आज यहं बताया कि कल देर रात पुलिस को सूचना मिली कि इटावा की यमुना नदी से कछुओं को निकालकर बोर में बांधकर खेतों में छुपाकर रखा गया है। इन कछुओं की तस्करी कलकत्ता में होनी है। पुलिस ने सूचना मिलने के बाद मौके पर छापा मारकर खेतों से चार बोरे कछुये बरामद किये हैं। मौके से दो तस्करों को भी गिरफ्तार किया है। इन कछुओं की तस्करी कलकत्ता में की जानी थी और यह दुर्लभ प्रजाति के कछुए है। इन कछुओं की सूचना वन विभाग को दे दी गयी है।

कछुओं की बरामदगी की खबर मिलने के बाद पर्यावरणीय संस्था सोसायटी फार कंजरवेशन ऑफ नेचर के महासचिव डॉ. राजीव चौहान भी वन अफसरों के साथ फ्रैंडस कालौनी थाने पहुंचे। जहॉ पर उन्होंने कछुओं की पहचान करने के बाद बताया कि इंडियन फलैप पोंड टर्टल, लिसिमस पंकटाटा, सुंदरी, इंडियन सोफट टर्टल, निलसोनिया गंगटिक्स नाम की प्रजाति के कछुए बरामद किये गये हैं।

डा. चौहान ने बताया कि दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में कछुए की अच्छी कीमत मिलती है। वहां काला कांडा कछुआ के लिए 30 हजार रुपये तक मिल जाते हैं। इसे एक खास संप्रदाय के लोग खूब पालते हैं। जबकि यह कछुआ पूर्वांचल व तराई क्षेत्र से महज 100 से 200 रुपये में कलेक्ट किया जाता है। वहीं, गांव-देहात और जंगलों से महज 100 से 500 रुपये में खरीदा जाने वाला कछुआ प्रजाति विशेष के हिसाब से बांग्लादेश में 2000 से 10,000 रुपये में आसानी से बिक जाता है। उन्होंने बताया, दुर्लभ तिलकधारी कछुओं की एक-एक पीस के लिए सवा लाख रुपये तक मिल जाते हैं।

महासचिव के अनुसार, कछुओं की सप्लाई पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के रास्ते चीन, हांगकांग और थाईलैंड जैसे देशों तक की जाती है। वहां लोग कछुए के मांस को पसंद करते हैं। साथ ही इसे पौरुषवर्धक दवा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। इन तमाम देशों में कछुए के सूप और चिप्स की जबरदस्त मांग है। दरअसल, चीन, हांगकांग और थाईलैंड जैसे देशों में कछुओं कीजबरदस्त मांग है। वहां खोल और मांस को पका कर खाने के अलावा इसके कई और इस्तेमाल भी किए जाते हैं। 

गौरतलब है कि इलाके में चंबल, यमुना, सिंधु, क्वारी और पहुज जैसी अहम नदियों के अलावा छोटी नदियों और तालाबों में कछुओं की भरमार है। 1979 में सरकार ने चंबल नदी के लगभग 425 किलोमीटर में फैले तट से सटे हुए इलाके को राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य घोषित किया था। 

इसका मकसद घडिय़ालों, कछुओं (रेड क्राउंड रूफ टर्टल यानी गर्दन पर लाल व सफेद धारियों वाले शाल कछुए) और गंगा में पाई जाने वाली डाल्फिन (राष्ट्रीय जल जीव) का संरक्षण था। मगर, यहां हुआ कुछ उल्टा ही। दरअसल, इस अभयारण्य की हदें उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश और राजस्थान तक फैली हुई हैं। इसमें से 635 वर्ग किलोमीटर उत्तर प्रदेश के आगरा और इटावा में है। इनमें से इटावा कछुओं की तस्करी का केंद्र बन गया। अभयारण्य बनने के एक साल बाद यानी 1980 से आज तक इटावा में ही सौ से भी अधिक तस्कर गिरफ्तार किए जा चुके हैं। जिनके पास से कुल 85 हजार से ज्यादा कछुए बरामद किए गए। इनमें से 14 तस्कर पिछले दो बरसों में पकड़े गए हैं, जिनके पास से 12 हजार से ज्यादा कछुए बरामद हुए। अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि जब इतने कछुए पकड़ में आए तो कितने सप्लाई हो चुके होंगे। यह धंधा सैकड़ों रुपये प्रति कछुए से शुरू होकर हजारों-लाखों के खेल तक पहुंचता है।

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