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गौरक्षा के लिए कड़े कानून ही काफी नहीं

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

गाय और गंगा भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। सभी धर्मों में गाय के दूध, दही, घी और माखन को अमृत माना गया है लेकिन इसके बाद भी गायों की हत्या की जाती है। उसके चमड़े, हड्डियों और मांस का व्यापार किया जाता है। सरकारें कानून को कड़े करके ही अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेती हैं लेकिन कानून कड़े बना देने से ही गोवंश को न्याय नहीं मिलेगा। उनके प्राणों की रक्षा तो तब होगी जब कानून का ईमानदारी से पालन हो। कानून का ईमानदारी से पालन तभी मुमकिन है जब अधिकारी और उनके मातहत ईमानदार और सरकार के प्रति वफादार हों।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गौ प्रेम किसी से छिपा नहीं है। गौहत्या न हो, इस लिहाज से उत्तर प्रदेश के बूचड़खानों पर रोक वे पहले ही लगा चुके हैं। इसका विरोध भी उत्तर प्रदेश में कुछ कम नहीं हुआ था। अब योगी कैबिनेट ने गौवंश की हत्या और तस्करी रोकने के लिहाज से यूपी गोवध निवारण (संशोधन) अध्यादेश-2020 को मंजूरी दे दी है। इस अध्यादेश के जरिए यूपी में 64 साल पहले लागू अध्यादेश में व्यापक बदलाव का मसौदा पास किया गया है। यह एक स्वस्थ पहल है, जिसकी मुक्तकंठ से सराहना की जानी चाहिए। इस अध्यादेश के तहत अब गोकशी या गौवंश की तस्करी के अपराध पर अधिकतम 10 वर्ष की सजा और 5 लाख का जुर्माना हो सकता है। आरोपियों के पोस्टर भी चस्पा किए जाएंगे। गौवंश का अंग-भंग करने पर भी एक साल की सजा और एक लाख रुपए के न्यूनतम जुर्माने का प्रावधान किया गया है। तस्करी के लिए ले जाया जा रहा गौवंश अगर जब्त किया जाता है तो उसके एक साल तक अथवा गोवंश के निर्मुक्त किए जाने तक उनके भरण-पोषण के खर्च की वसूली भी अभियुक्त से होगी। यह वसूली गौवंश के मालिक को मिलेगी। अभीतक गोवंश या उसके मांस को ढोने वाले वाहनों, उनके मालिकों या चालकों पर कार्रवाई को लेकर तस्वीर साफ नहीं थी। अब जबतक वाहन मालिक साबित नहीं कर देंगे कि उनके वाहन में प्रतिबंधित मांस की जानकारी नहीं थी, वे भी दोषी माने जाएंगे। इस अधिनियम के तहत सभी अपराध गैर जमानती होंगे।

अबतक गौकशी और गौ तस्करी पर सात साल की जेल और दस हजार रुपये का प्रावधान था। यह अपने आप में बड़ा और कड़ा अध्यादेश है। इससे सरकार की गंभीरता का पता चलता है लेकिन गौहत्या या गौ तस्करी को लेकर विभिन्न राज्यों में जो भी कानून रहे हैं, वे भी काटने-बराने लायक नहीं हैं। इन मामलों में 1956 से लेकर आजतक कितने लोगों को सजा हुई। कितने लोगों को अर्थदंड भुगतना पड़ा, अगर इसकी पड़ताल में जाए तो पता चलेगा कि सजा का प्रतिशत बहुत कम है। यह और बात है कि उत्तरप्रदेश में गौवध एक्ट के तहत 1334 मामले दर्ज हुए हैं और 3687 लोग पकड़े गए हैं।

जिस गाय की चर्बी, गोली में लगी होने के बाद 1857 का गदर हुआ और इसी के बाद यूपी पुलिस रेगुलेशन एंड पुलिस एक्ट 1861 बना था। उस पुलिस-प्रशासन की कार्यशैली पर भी निरंतर अंगुलियां उठती रही हैं। जीटी रोड से जुड़े थानों या सीमावर्ती थानों के आसपास से बहुत बड़ी तादाद में गौवंश कटने के लिए बंगाल और असम भेजे जाते हैं लेकिन उनमें से पकड़े कितने जाते हैं, यह भी किसी से छिपा नहीं है। गौवंश की तस्करी का एक बड़ा रैकेट देशभर में सक्रिय है। जिन गौरक्षकों इनमें पुलिस और जनता के लोग भी शामिल हैं, उनकी नीयत भी पशु तस्करों से मिलने वाले धन पर रहती है। जो इक्का-दुक्का वाहन पकड़े जाते हैं, वे हाथी के दांत की तरह ही होते हैं। इक्का -दुक्का वाहनों को पकड़कर सरकार और उच्चाधिकारियों की नजर में आदर्श गौरक्षक की छवि भी हासिल कर लेती है और भारी-भरकम कमाई भी कर लेती है। गौरक्षकों की भूमिका भी बहुधा कमाई करने की ही होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक 80 प्रतिशत गौरक्षकों को फर्जी और धंधेबाज बता चुके हैं। सभी गौरक्षक एक जैसे नहीं हैं। पुलिस भी धंधेबाज गौरक्षकों से चिंतित नहीं होती, वह तो ईमानदार प्रजाति के गौरक्षकों पर तल्ख होती है और कभी-कभी उन्हें संगीन मुकदमों में फंसा देती है।

भारत में गाय को लेकर अंग्रेजों के शासनकाल में पहला हिंदू-मुस्लिम दंगा 126 साल पहले हुआ था। सबसे पहले गौरक्षा का मुद्दा हिंदुओं ने नहीं, सिखों ने उठाया था। अंग्रेज शासकों से हिंदू 1870 के दशक से ही गौकशी पर रोक वाला कानून बनाने की मांग करने लगे थे लेकिन अंगेजों के लिए गौहत्या ऐसा मामला था जो हिंदुओं और मुस्लिमों को आपस में लड़ा सकता था। अस्तु उन्होंने इसपर कानून तो नहीं बनाया लेकिन हिन्दू मुस्लिम संघर्ष के आधार पर हिंदुओं और मुसलमानों पर अपना कानूनी डंडा जरूर भांजते रहे। गौहत्या के मुद्दे पर जो हिंदू-मुस्लिम पहले अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते थे, वे एक-दूसरे के खिलाफ हो गए थे। 70 के दशक में गोरक्षा की भावनाएं बलवती हुईं। गौरक्षा समितियों की स्थापना होने लगी। सन 1871 में सिखों के कूका पंथ ने गौ हत्या रोकने का बीड़ा उठाया। आर्य समाज ने गाय को केंद्र में रखकर हिंदुओं को एकजुट करने की कोशिश की। सन 1883 में दयानंद सरस्वती के निधन केे बाद गोरक्षा आंदोलन अपने लक्ष्य से भटक गया। साल 1893 में मऊ से दंगे की चिंगारी भड़की। इसके बाद बिहार, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में साम्प्रदायिक दंगे हुए।

6 महीने में 31 दंगे। देश कांग्रेस के बैनर तले बढ़ रहा था लेकिन गौरक्षा में कांग्रेस सीधे इनवॉल्व नहीं थी लेकिन इसको चोरी चुपके अपनी सरपरस्ती में रखा। 1891 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन के पंडाल में गोरक्षा सभा ने अपना प्रोग्राम किया। कांग्रेस के तमाम बड़े नेता भी उसमें शरीक हुए।

1966 में हिंदू ऑर्गनाइजेशन आरपार के मूड में आ गए। संविधान में गोकशी को पूरी तरह बंद कराने का कानून बनाने की डिमांड पूरे जोर से रखी गई। शंकराचार्य निरंजनदेव तीर्थ स्वामी करपात्री, महात्मा रामचंद्र वीर ने गौरक्षा कानून बनाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया था। रामचंद्र वीर ने तो 166 दिन लंबा अनशन किया था। गौकशी के खिलाफ कानून बनाने की मांग को लेकर 7 नवंबर 1966 को संसद घेरी गई। प्रचंड आंदोलन हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने गौकशी पर प्रतिबंध लगाने की मांग खारिज कर दी। साधु-संतों की अगुवाई में 10 हजार वकील भी शामिल हो गए थे। आंदोलनकारियों को संसद घेरने से रोक दिया गया तो दिल्ली में जमकर उत्पात हुआ। भीड़ ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष कामराज के घर पर हमला बोल दिया, घर को आग लगा दी। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए फायरिंग हुई। तमाम लाशें गिर गईं। गोवध निवारण अधिनियम 1955 उत्तर प्रदेश में छह जनवरी 1956 को लागू हुआ था, वर्ष 1956 में इसकी नियमावली बनी थी। भारत की बहुसंख्यक आबादी गाय को पवित्र और माता मानने वाले हिंदुओं की है,उस देश से गोमांस का भारी निर्यात चिंताजनक तो है ही।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय भी द प्रीवेंशन ऑफ क्रुएलिटी टु एनिमल्स (रेगुलेशन ऑफ लाइवस्टॉक मार्केट्स) नियम 2017 को नोटिफाई कर चुका है। इस नोटिफिकेशन का मकसद मवेशी बाजार में जानवरों की खरीद-बिक्री को रेगुलेट करने के साथ मवेशियों के खिलाफ क्रूरता रोकना था। पूरे देश में इसको लेकर बहस शुरू हो गई थी। राजनीतिक गलियारों में इसका विरोध हो रहा था। केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने अपना विरोध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खत लिखा था और राज्य में इसके खिलाफ कानून लाने की बात की थी।

गौरतलब है कि 11 राज्यों जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और 2 केंद्र शासित राज्यों- दिल्ली, चंडीगढ़ में गाय, बछड़ा, बैल और सांड की हत्या पर पूरी तरह रोक है। गौहत्या कानून के उल्लंघन होने पर इन राज्यों में कड़ी सजा का प्रावधान है जबकि दस राज्यों केरल, पश्चिम बंगाल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम और केंद्र शासित लक्षद्वीप में गो-हत्या पर कोई रोक नहीं है। आठ राज्यों बिहार, झारखंड, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा और चार केंद्र शासित राज्य दमन और दीव, दादर और नागर हवेली, पांडिचेरी, अंडमान ओर निकोबार द्वीप समूह में गो हत्या पर आंशिक प्रतिबंध है। यहां गाय और बछड़े की हत्या पर पूरा प्रतिबंध है लेकिन बैल, सांड़ और भैंस को काटने और खाने की अनुमति है।

दुनिया भर में गोमांस अर्थात ‘बीफ़’ का कुल निर्यात 94 लाख 39 हजार मीट्रिक टन है जबकि भारत द्वारा किया जाने वाला गौमांस का निर्यात 18 लाख 50 हजार मीट्रिक टन है जो ब्राजील के बराबर है और आस्ट्रेलिया और अमेरिका से बहुत अधिक है।

गाय की उपयोगिता जगजाहिर है लेकिन इसके बाद भी उसकी हत्या समझ से परे है। कानून के सख्त होने से ही बात नहीं बनेगी। गौहत्या रोकने लिए जिम्मेदार तंत्र को पूर्णतः ईमानदार होना होगा। गौवंश लदे हर वाहनों को रोकना और पकड़ना होगा। पशु माफिया में भय पैदा करना होगा। सजा का ग्राफ बढ़ाना होगा अन्यथा ढेर सारे कड़े कानूनों की फेहरिस्त में एक और नाम जुड़ जाएगा। इससे अधिक कुछ नहीं होगा। योगी सरकार अगर वाकई गौरक्षा को लेकर गम्भीर है तो उसे अपने पुलिस तंत्र पर भी शिकंजा कसना होगा।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)

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