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ताकतवर भविष्य का आधार टेक्नोलॉजी

वर्ल्ड टेक्नोलॉजी डे 11 मई पर विशेष

– डॉ. राकेश राणा

टेक्नोलॉजी को आधुनिक समाज की धुरी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं है। जैसे परम्परागत समाजों की संचालक शक्ति संस्कृति रही, वैसे ही आधुनिक समाज तकनीकी को अपनी संचालक शक्ति के रूप में प्रयुक्त कर रहा है। यह गंभीर सवाल समाज-विज्ञान के दयरे में अभी उतनी हलचल पैदा करता नहीं दिख रहा है। जितनी इसने समाज में घुसपैठ बना ली है। क्या भविष्य तकनीकी से संस्कृति का स्थानापन्न देखेगा? यह कहना संस्कृति के बल को कम आंकना और निराशापूर्ण लगे तो भी इतना तय है कि संस्कृति के भौतिक पक्ष का वर्चस्व अभौतिक पक्ष को सिर्फ जीने लायक सांस देने के समझौते समाज से लगभग कर चुका है। उसी के तहत तकनीक तरक्की कर सभ्यता के साम्राज्य विस्तार में दिन-रात एक किए हुए है। जो निकट भविष्य में बहुत विकट और व्यापक बदलावों के साथ 21वीं सदी के पैराडाइम-शिफ्ट का मजबूत आधार कारक बनेगी। प्रोद्यौगिकी सामाजिक संबंधों को विस्तार देने वाली व्यापक और उन्हें रिसेफ करने वाली तथा बहुत हद तक बदलने वाली सिद्ध हुई है। सामाजिक संबंधों पर व्यापक प्रभाव सामाजिक बदलावों के रुप में विभिन्न सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक संघर्षों को आयोजित करते दिख रहे हैं।

आधुनिकता की शक्ति टेक्नोलॉजी समाज को सहज, सुगम और सुविधायुक्त बनाकर उसके अभावों और कमजोरियों का उन्मूलन करने के साथ समाज का समर्थन और साथ पाने में सफल हुई है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी समाज के बेहतर भविष्य का भरोसा दिलाते हुए व्यापक स्तर पर सामाजिक समर्थन जुटाने में भी सफल रहे। एक बेहतर भविष्य के निर्माण और वर्तमान की समस्याओं को हल करने के लिए तकनीक को एक बेहतर विकल्प के रूप में देखा गया। इसमें कोई शक नहीं है कि विज्ञान और तकनीकी ने दुनिया को बदलकर रख दिया है। जिसका अगला चरण कोरोना संक्रमण के बाद और भी अधिक प्रभावशाली और परिवर्तकारी होने जा रहा है। टेक्नोलॉजी का बढ़ता प्रभाव ही है कि नयी दुनिया एक डिजिटल संसार में तब्दील होती दिख रही है। सामाजिक संरचना डिजिटल सामाजिक संरचना की ओर बढ़ रही है।

टेक्नोलॉजी की दुनिया में रोज कुछ न कुछ नया जमा हो रहा है। हालांकि विज्ञान में न वह तेवर दिखते हैं ना वैसी तेजी ही। टेक्नोलॉजी ने विज्ञान को भी जैसे ठग लिया है क्योंकि विज्ञान के सहारे तकनीक अपना साम्राज्य बढ़ा रही है। मूलतः वैज्ञानिक सिद्धांतों पर ही तकनीक विकसित होती है। नित नए उत्पाद बनाकर टेक्नोलॉजी अपना जनाधार बढ़ा चुकी है और अपनी सत्ता भी स्थापित कर बैठी है। उसकी विस्तारवादी सोच सब कब्जाती जा रही है। जबकि विज्ञान पर यह बड़ा सवालिया निशान है कि अगर विज्ञान ने विकास किया है, समाज में अपना बेहतर योगदान दिया है तो फिर क्यों वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास समाज में नहीं हो रहा? क्यों अंधविश्वास और रुढ़ियां पहले से भी ज्यादा बढ़ी? क्यों समाज अंधानुकरण और करिश्माई क्रियाकलापों में मगशूल है? धर्म के बजाय धर्मांधता क्यों मजबूत हुई है।

समाज में बढ़ता अंधानुकरण और तार्किकता का अभाव इन सवालों को विज्ञान-तकनीकी के युग में अगर खड़ा कर रहा है तो यह दोनों के चरित्र को संदिग्ध बनाता ही है। जहां जीवन के हर पक्ष को साइंस-टेक्नोलॉजी ने परिवर्तित, परिमार्जित और सवंर्द्धित करने का दावा किया है। तीव्र होते सामाजिक तनावों की बयार इन खतरनाक सवालों की धार को पैना बना रही है। टेक्नोलॉजी का समाज पर प्रभाव इस कदर है कि मनुष्य के सामाजिक व्यवहार से लेकर उसके आचार-विचार, संबंध और जीवन दृष्टिकोण तक सब बदल रहे हैं। तकनीक सामाजिक संबंधों को पुर्नःव्यवस्थित करने के दबाव बना रही है। टेक्नोलॉजी ने राजनीतिक-आर्थिकी और मनो-सामाजिकी के सभी पक्षों को पुर्नपरिभाषित करने के दबाव बढ़ाए हैं। ऐसे तमाम गंभीर सवाल तकनीकी को लेकर आज अकादमिक दायरों में चिंता और चिंतन के नए बिन्दु उभार रहे हैं। क्योंकि किसी भी समाज के लिए अपने सन्दर्भ में तकनीकी के प्रभावों और परिणामों को मुक्कमल ढंग से समझना मुश्किल तो है ही। टेक्नोलॉजी ही सामाजिक संरचना को सबसे पहले और सीधे प्रभावित करती है। तकनीक ही समाज में आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक क्रियाकलापों तथा नए विमर्शों को आगे बढ़ाने का काम करती है। नयी तकनीक के अनुकूलन और अपनाने की दर भी किसी समाज की सामाजिक संरचना पर ही बहुत हद तक निर्भर करती है। इसका सीधा संबंध हमारे आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक विचार-विमर्शों से ही है।

आधुनिकता की इन तमाम जरूरतों और जिदों के बावजूद यह सवाल भी जरूरी हो जाता है कि विज्ञान और तकनीकी की जरूरत समाज के लिए आखिर कितनी है और क्यों है? कहां जाकर रुकना है? मनुष्य ने अपने जीवनानुभवों से हजारों साल की संचित संस्कृति और जिस साभ्यतिक पहचान को स्थापित किया है, क्या वह उसे खो रहा है? टेक्नोलॉजी मानव सभ्यता और संस्कृति पर हावी हो रही है? इस निष्कर्ष पर अंतिम रूप से कुछ कहना मुश्किल है। लेकिन जिस जरह मानवीय जीवन पर तकनीक का नियंत्रण बढ़ रहा है। उसी मात्रा में यह भय भी एक खतरे के रूप में मनुष्य की आजादी से लेकर अस्तित्व तक मंडरा रहा है। जिस रफ्तार से इनफॉरमेशन-टेक्नोलॉजी और बायो-टेक्नोलॉजी बढ़ रही है, डाटा का अंबार लगाने की होड़ दुनिया में मची हुई है, वह आसन्न खतरों की सुगबुगाहट तो है ही।

विज्ञान और तकनीक का विकास, विस्तार और रोल किसी भी देश के राष्ट्रीय और सामाजिक चरित्र की दिशा में ही निर्धारित होता है। भविष्य का विश्व-समाज निर्माण और विध्वंस में से जिस ओर झुकेगा, साइंस और टेक्नोलॉजी भी वैसे ही कारनामों में हमारे-आपके सामने होंगे। अभी जिस ढंग से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस मानवीय श्रम के साथ-साथ समझ को भी चुनौती देती दिख रही है। वह हमें खुल-जा सिम-सिम वाले डरावने आदिम-युग में भी, ले जाकर पटक सकती है। बेशक तकनीकी का प्रभाव खास से आम लोगों तक नजर आ रहा है। समाज सक्षम और समर्थ भी बना है। उतना ही सच यह भी है कि तकनीक आत्मघाती और आत्मकेंद्रित भी होती जा रही है। वह एक आभासी दुनिया रच रही है। हमने जिस संस्कृति के निर्माण में जीवन अनुभवों को संजोकर किया है। आज तकनीकी उन पर वर्चस्व बना बैठी है। टेक्नोलॉजी अभिशाप न सिद्ध हो बल्कि मनुष्य की सहायक बने। इसके लिए नयी सामूहिकताएं और नयी नैतिकताएं ही सामने आकर मोर्चा संभाले। जिसके लिए जरूरी है ज्ञान, विज्ञान, समाज विज्ञान और तकनीकी एक-दूसरे की पूरक बने और सहचर बनकर मानव कल्याण और समाज विकास की दिशा में सकारात्मक भूमिका के दायित्व का निर्वहन करे।

(लेखक समाजशास्त्री हैं।)

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