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आत्मनिर्भरता बनाम स्वदेशी का मंत्र, विरोधाभास कहां?

– सतीश एलिया

कोरोना से बचाव के लिए किए गए देशव्यापी लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था और गरीब से लेकर निम्न मध्यम वर्ग तक पर पड़ रही आर्थिक मार से पूरा देश बेहाल है। जाहिर है पूरी दुनिया में कोराना के संक्रमण से फैलाव से बचने का उपलब्ध रामबाण विकल्प लॉकडाउन ही है, जिस देश ने इसमें देरी की उसने उतनी ज्यादा मौतें देखी हैं। लेकिन आर्थिक हालात और रोजी-रोटी का संकट भी कोरोना की ही तरह भयावह है। सरकार जो उपाय कर सकती है, करने में जुटी है। करीब दो महीने के लॉकडाउन से बदहाल देश की अर्थव्यवस्था में फिर से जान डालने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरानाकाल के अपने पांचवें राष्ट्र संबोधन में जिस 20 लाख करोड़ के महापैकेज का ऐलान और देश को ‘आत्मनिर्भर’ बनाने पर जोर दिया, उसकी अलग-अलग व्याख्या हो रही है। ठीक उसी तरह जिस तरह सालाना बजट की होती है, सत्ता पक्ष और उसके समर्थक इसकी तारीफ करते हैं और विपक्षी आलोचना। लेकिन एक तीसरा पक्ष भी है जो जनमत है यानी मोदी ने भारतीयता पर गर्व करने और आत्मनिर्भरता पर जोर दिया, उसे स्वदेशी से जोड़ने का अभियान सोशल मीडिया पर चल पड़ा है।

यहां तक कि मल्टी नेशनल कंपनियों के उत्पादों को न खरीदने तक की मुहिम चलाई जाने लगी, लेकिन क्या हमारी ही सरकार एफडीआई को आमंत्रित नहीं करती? क्या ग्लोबल मार्केट में भारत के बाजार के दरवाजे विदेशी कंपनियों के उत्पादों के लिए बंद करने की यह मुहिम भारत का ही नुकसान करने वाली साबित नहीं हो जाएगी? आत्मनिर्भर का अर्थ स्वदेशी भर समझने और समझाने के आर्थिक और वैश्विक रूप से क्या हो सकता है? हमें इसका अनुमान भी लगाना चाहिए। जैसे सरकार लॉकडाउन के बाद पलायन का अंदाज नहीं लगा सकी और तस्वीरें सामने हैं। लेकिन हुआ यही कि प्रधानमंत्री मोदी की आत्मनिर्भरता के संदेश को स्वदेशी के आईने में देखा गया तथा माना गया कि अब देश का सामान देश में ही बनाने और उसे खपाने का सही समय आ गया है। आरएसएस से जुड़े संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने कहा कि यह देश में ‘आर्थिक राष्ट्रवाद’ का शंखनाद है।

हमने सुना ‍कि प्रधानमंत्री ने 12 मई को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में ‘आत्मनिर्भर’ शब्द का कई बार ‍जिक्र किया लेकिन उसमें ‘स्वदेशी’ शब्द का प्रयोग एकबार भी नहीं था। प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता के पांच ‘पिलर’ भी देश को बताए तथा अर्थकेंद्रित वैश्वीकरण बनाम मानव केंद्रित वैश्वीकरण की भी चर्चा की। यकीनन भारत जैसे देश में 20 लाख करोड़ रुपए का राहत पैकेज बहुत बड़ा कदम है। इससे ये तो पता चलता है कि देश को कोरोना संकट से उबारने के लिए देर से सही, केन्द्र सरकार जागी तो है। साथ ही यह सवाल भी जुड़े हैं कि क्या वास्तव में यह पैकेज सरकार अपने बटुए से दे रही है या फिर यह आंकड़ों की बाजीगरी ज्यादा है? अगर सरकार यह जेब से दे रही है तो यह पैसा आखिर कहां से आ रहा है? क्या यह सरकार के पुराने राहत पैकेजों की ही नई पैकेजिंग है अथवा देश की औंधी पड़ी अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने के लिए सरकार पूरी ताकत से संजीवनी बूटी सुंघाना चाहती है?

स्वदेशी मतलब छोटे उद्यम को बढ़ावा देना

यह चर्चा लंबे समय से जारी है कि स्थानीय जरूरतों के हिसाब से जरूरी वस्तुओं का उत्पादन भी स्थानीय स्तर पर हो। हमारे ही उद्यमी और कारीगर उनका निर्माण करें। उसमें देशी पूंजी ही लगे और स्थानीय बाजार तलाशे जाएं। पहले किसी हद तक ऐसा हो भी रहा था। हालांकि तब हमारी आर्थिक वृद्धि दर डेढ़-दो प्रतिशत ही रहती थी। करीब 29 साल पहले वैश्वीकरण के आगाज के वक्त भारत ने भी अपने बाजार विकसित देशों के लिए खोल दिए। तब कांग्रेस की पीवी नरसिंहराव सरकार थी और वित्तमंत्री थे आरबीआई के पूर्व गर्वनर डॉ. मनमोहन सिंह जो बाद में कांग्रेसनीत यूपीए में 10 साल प्रधानमंत्री रहे। नरसिंहराव का कोई नामलेवा कांग्रेस में नहीं रहा लेकिन नई आर्थिक नीति के भारत में सूत्रधार डॉ. सिंह एक दशक प्रधानमंत्री रहे और वे अब भी कांग्रेस की तरफ से कोरोनाकाल के संकट में वर्तमान सरकार की नीतियों की आलोचना के बड़े सूत्र हैं। बहरहाल ग्लोबाइजेशन से कदमताल में जब तीन दशक पहले भारत ने भी अपने दरवाजे खोल दिए थे, तब जो विचार परिवार यानी आरएसएस इसके विरोध में मुखर था, वह पहले छह साल और अब फिर छह साल से सत्ता में है लेकिन उन्हीं नीतियों को ग्लोबलाइजेशन पर उसी तरह अमल कर रहा है लेकिन उस विचार परिवार में बीच-बीच में यह बात उठती रहती है। लेकिन इन तीन दशकों में हुआ क्या? देश के छोटे-छोटे स्थानीय उद्योग और उत्पादन संकट में आए और बड़ी संख्या में काल कवलित भी हो गए। भारी पूंजी, आधु‍निक तकनीक और प्रचार की चकाचौंध के चलते छोटी-मोटी चीजों के लिए हम विदेशी वस्तुओं पर आश्रित होने लगे। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि हम ‘जैसा चलता है, चलने दो’ की मानसिकता से बाहर निकलकर खुली प्रतिस्पर्द्धा में उतरें। हमने भी दूसरे कुछ देशों में अपने बाजार कायम ‍किए। जाहिर है कि यह काम दोतरफा होता है।

यहां सवाल यह है कि मोदी की आत्मनिर्भरता की व्याख्या जनता तक पहुंचते-पहुंचते स्वदेशी में कैसे बदल गई? दोनों में क्या अंतर्संम्बन्ध है? प्रधानमंत्री के भाषण में जिस ‘आत्मनिर्भरता’ की बात कही गई, उसकी आत्मा स्वदेशी को ही माना गया। क्योंकि जबतक उपभोक्ता वस्तुओं के लिए हम विदेशी उत्पादों पर निर्भर रहेंगे, तब स्वदेशी वस्तुओं को सहारा मिलना मुश्किल है। बाजार ही न होगा तो कोई स्वदेशी वस्तु बनाएगा क्यों? स्वदेशी को बनाए रखने के लिए नागरिकों में इस दृढ़ संकल्प की जरूरत है कि चाहे जो हो, वे स्थानीय रूप से उत्पादित सामान ही खरीदेंगे। विदेशी सामान के लुभावने प्रचार में नहीं फंसेंगे। योग से कारोबार तक सफलता से पहुंचे बाबा रामदेव और उनकी कंपनी पंतजलि की सफलता की कहानी इसी स्वदेशी से निकली लेकिन सवाल यह है कि जो कंपनियां हमने निवेश का न्यौता देकर बुलाई हैं और हमारी कंपनियां भी विदेशों में कारोबार कर रही हैं, उनका इस स्वदेशी के प्रखर आग्रह से क्या होगा? ये विदेशी कंपनियां अब अपने सामान भारत में ही बना रही हैं, जिनकी वजह से लाखों भारतीयों को रोजगार मिला है, उनके उत्पादों को आप ‘विदेशी’ कैसे मानेंगे? फिर जिस स्तरीय गुणवत्ता और प्रतिस्पर्द्धी कीमतों के हम आदी हो चुके हैं, उनका विकल्प स्वदेशी में कैसे मिलेगा, यह भी सवाल है। यहां छोटे-मोटे आयटम्स में तो यह हो सकता है कि हम विदेशी और खासकर चीनी माल न खरीदें। बाकी का क्या? प्रधानमंत्री मोदी के आत्मनिर्भरता मंत्र पर अमल में गृह मंत्रालय ने केन्द्रीय सुरक्षा बलों की कैंटीन में स्वदेशी वस्तुओं को बेचने का आदेश जारी कर दिया। यह अच्छा फैसला है। क्योंकि इन कैंटीनों से हर साल करीब 2800 करोड़ रुपए की ख़रीद की जाती है। लेकिन यहां स्वदेशी से तात्पर्य केवल भारत में ‍निर्मित उत्पाद हैं तो यह काम तो वहां पहले से ही रहा है। यहां तक कि कारें भी महिंद्रा की ही बिकती हैं। खादी ग्रामोद्योग के उत्पाद ये कैंटीन पहले से खरीद रहे हैं। एक समस्या और भी कि स्वदेशी के फेर में स्थानीय कारीगरों और देशी उद्यमियों के आर्थिक और व्यावसायिक हितों का टकराव कैसे रोका जाएगा?’

पैकेज की आलोचना में राजनीति

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में जिस पैकेज का ऐलान किया उसे 20 लाख करोड रुपए का बताया। जिसमें उन्होंने यह भी बाद में जोड़ दिया था कि इसमें पहले से घोषित अन्य पैकेज शामिल हैं। आर्थिक जानकार जो बता रहे हैं उसके मुताबिक इस महापैकेज के दो भाग हैं। पहला है राजको‍षीय (फिस्कल) तथा दूसरा है मौद्रिक (माॅनेटरी)। फिस्कल पैकेज सरकार अपनी जेब से देती है और मौद्रिक पैकेज रिजर्व बैंक या बैंकों के माध्यम से दिया जाता है। बीस लाख करोड़ के पैकेज में रिजर्व बैंक और बैंकों की तरफ से मिलने वाला करीब 11 लाख करोड़ रुपये का तो मौद्रिक पैकेज ही है। सरकार ने सिर्फ 1.7 लाख करोड़ रुपये का फिस्कल पैकेज दिया है लेकिन वह भी पहले से बजट में तय था। इसी तरह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एमएसएमई, छोटे कारोबारियों और कर्मचारियों के लिए करीब 6 लाख करोड़ रुपए का जो पैकेज घोषित किया, उसमें भी मॉनिटरी हिस्सा ज्यादा है। यह पैसा बैंकों को ही देना है।

आत्मनिर्भरता बहिष्कार नहीं हो सकती

प्रधानमंत्री के भाषण में आत्मनिर्भरता की बात को गैर स्वदेशी के बहिष्कार की मुहिम चलाने वाले तबके को समझना चाहिए कि मोदी ने इसकी व्याख्या इस तरह की है कि यह आत्मनिर्भरता न तो बहिष्करण है और ना ही अलगाववादी रवैया। हमारा आशय दुनिया से प्रतिस्पर्द्धा करते हुए अपनी दक्षता में सुधार कर दुनिया की मदद करना है। दरअसल आत्मकेन्द्रित होने और आत्मनिर्भर होने में बुनियादी फर्क है। ‘आत्मनिर्भरता’ एक व्यापक शब्द है। उसमें कई भाव और आग्रह निहित हैं।’आत्मनिर्भरता’ आत्मविश्वास के साथ-साथ नैतिक संयम और व्यावहारिक खरेपन की भी मांग करती है। बुलंदियों पर पहुंचने के लिए कठोर परिश्रम, ज्ञान की साधना और उत्कृष्टता का सम्मान अनिवार्य है। देखना यह है कि प्रधानमंत्री के अपने दल भाजपा और संघ परिवार के बाकी संगठनों से जुड़े लोग उनके आत्मनिर्भरता के मंत्र को खुद कितना अपनाते हैं। बाकी जनता को कितना समझा पाते हैं, कितना प्रचार से कितना आचरण से।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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