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बुरा देखने, सुनने व कहने पर रोक, पर कब तक ?

महात्मा गांधी के साथ प्रसिद्ध होनेवालों में उनकी ‘लाठी’, ‘लंगोटी’ के साथ-साथ वे तीन बंदर भी थे, जिनमें एक-आंख, दूसरा-कान व तीसरा-मुंह बंद किये दिखता था।

इन बंदरों के अपने आंख, कान व मुंह बंद किये रहने का वास्तविक कारण क्या था? इसे तो वे ही बता सकते हैं, अथवा सर्वशक्तिमान ईश्वर। तीनों में कोई जन्मजात विकृति भी हो सकती है, जिसके चलते वह अंग विशेष को छिपाने को विवश हों। जैसे आंख बंद करनेवाले के आंख ही न रही हो, कानों की बनावट अन्य जैसी न हो, जिसके फलस्वरूप उन्हें पंक्तिभेद के भय से वे उन्हें ढके रहने को विवश रहते हों। अथवा मुंह की बनावट ‘उन्हें वानर जाति से च्युत करनेवाली रही हो। आदि-आदि। दिल्ली का तत्कालीन प्रदूषण भी इसका कारण हो सकता था और एलर्जी रोग से पीड़ा भी।

किन्तु स्वाधीन भारत के सत्ता प्रतिष्ठान ने तीनों के सामूहिक चित्र प्रदर्शित कर उन्हें इस दार्शनिक उपदेश की मुद्रा में प्रचारित किया मानो वे संदेश दे रहे हों कि-बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो।

महात्मागांधी की हत्या के बाद उनके प्रति जनसामान्य की श्रद्धा ने इस संदेश को सत्ता प्रतिष्ठान की कारगुजारियों के प्रति आमजन का ऐसा अनुकूलन किया कि वह उनके कारनामों के प्रति-न देखने, न सुनने व न ही कुछ कहने की निरपेक्ष स्थिति में आ गया।

जबकि सत्ता संभालनेवाला तंत्र अपने एक के बाद एक लिए निर्णय में अपनों के लिए व अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए ऐसे-ऐसे फैसले लेता रहा जिनका अधिकांश गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार-‘सकल ताड़ना का अधिकारी’ था। प्रखर आलोचना का पात्र था।

पर गांधीभक्त आमजन का इससे कोई लेना-देना न था। अंगरेजी राज में जमीदारों-शासकों के अत्याचारों को हाथ बांध सहनेवाला यह वर्ग स्वाधीन भारत के इन शासकों के विपरीत निर्णयों के बावजूद स्वयं तो हाथ खोलने को तैयार था ही नहीं, एकआध ‘महावीर’ व ‘लोहिया’ सरीखे आंख, कान, मुंह खुला रखने व इनका भरपूर उपयोग करनेवालों के साथ खड़ा होने तक को प्रस्तुत न था। अपने स्वामी से गालियों, लात-घूंसों से ही संजीवनी पानेवाला यह वर्ग तो अपने स्वामी के इस नित्यकर्म से विमुख रहने के दिन आशंकित हो उठती थी कि ‘आज मालिक क्यों रिसाए हैं’।

परिणामतः स्वाधीनता के बाद करीब चैथाई सदी तक जनसामान्य की प्रायः समस्त पीढी, पूर्व की भांति, विशुद्ध आलोचना को भी निन्दारस मानती अपने नये स्वामियों के समक्ष हाथ बांधे ही खड़ी रही। बुरा देखने, सुनने व कहने से तो इनका दूरदराज का भी संबंध न था। इनका राजा (स्वाधीन भारत में शासक) तो गलती कर ही नहीं सकता था। उसका तो गलती दिखनेवाला निर्णय भी या तो आमजन के भाग्य का परिणाम था या ईश्वरीय दण्ड।

बस, इसी समर्पण के बल पर आमजन दो-ढाई दशक तक मुदित मन अपने सत्ता पर आसीन प्रभुओं की बहकाने-बहलानेवाली बातों को ‘मुदितमन’ स्वीकारता उनकी कृपाकोर का आकांक्षी बना रहा।

स्वाधीनता के समय की पीढ़ी के साथ तो यह चल गया किन्तु ज्यों-ज्यों स्वाधीनता के समय की यह पीढ़ी कम हुई, नयी समस्याएं दो-चार हुई, नये स्वर भी उभरने लगे। बाद की पीढ़ी उतनी निरीह भी न थी कि अपने संप्रभुओं के समक्ष अब भी हाथ बांधे रहते। अतः सवाल उठे। किन्तु दुर्भाग्य, यह सवाल भी समस्या का कारण जानने व निवारण के प्रयास के लिए नहीं, महज तात्कालिक समाधान के लिए थे। यह सत्ताधीशों के लिए दिक्कततलब तो था किन्तु इतना भी नहीं कि समाधान के नाम पर आपातकाल लागू करना पड़े।

पर जल्द ही वह पल भी आ गया। इसका कारण था बुजुर्ग लोकनायकों का युवाओं को उनकी समस्या का कारण बता देना। प्रश्नकर्ताओं को त्वरित समाधान के स्थान पर स्थाई समाधान के सवाल उठाने को प्रेरित करना। समस्या के कारणों पर सवाल उठाने की प्रवृत्ति बढ़ाना। फलतः सवाल पर सवाल, इतने सवाल उठे कि बचने के लिए ‘आपातकाल’ का सहारा लेना पड़ा।

आपातकाल का युग समाप्त होने के बाद नये युग का आरम्भ हुआ। किन्तु दुर्भाग्य, इनकी सोच भी नई न निकली। परिणाम कोई परिवर्तन लाने की जगह वे उपलब्धि के क्षणों में भी सत्ता के लिए ऐसे झगड़े कि आमजन एक बार फिर ‘इनसे बेहतर तो वे ही’ तर्ज पर चलने को विवश हो गये।

इसके बाद आया उथल-पुथल का वह युग जब सत्ता किसी ईमानदारी के झंडाबरदार के हाथों फिसली तो कभी किसी जातिवाद के हामी के हाथ। तो किसी ने अवसर अनुकूल जान राष्ट्रवाद की ‘बयार’ चला अपनी जड़े मजबूत की।

हां, इस उठापठक के चलते अब तक निरीह माना जानेवाला ‘आमजन’ अवश्य अच्छा आलोचक, नीर-क्षीर विवेकी तथा अब मूल्यांकन की तुला साथ लेकर चलनेवाला बन गया।

इसके परिणामस्वरूप आज की ताजा स्थिति यह बन गयी है कि ‘हाथ बांधे खड़ी रहनेवाली’ पीढ़ी समाप्त हो चुकी है। एक-आध जो बचे भी हैं वे न जिन्दों में हैं, न मरों में। असंतोष जतानेवाली इस पीढ़ी के समक्ष गांधीजी के बंदरों का प्रचारित दार्शनिक पक्ष नहीं, सवाल हैं। वे प्रश्न करते हैं कि-वे कब तक और क्यों अपने हित, अपने देश के हित-अनहित का विचार न करें। –कृष्णप्रभाकर उपाध्याय

और तो और समय की धारा देख अब गांधी जी के बंदरों ने भी अपनी भूमिका बदल ली है। गांधीजी का देख न पानेवाला बंदर सुन व समझकर ही-क्या हुआ होगा-इसका ज्ञान पा लेता है और उस पर अपनी प्रतिक्रिया दे उठता है। जबकि न सुननेवाला, अपनी इस क्षमता का उपयोग जीभर आलोचनाएं कर, इसका प्रतिपक्ष सुने बिना कर रहा है। और न बोल सकनेवाले वानर देखने, सुनने के बाद इशारों ही इशारों में ऐसे-ऐसे संकेत कर जाता है कि अच्छे-अच्छे वक्ताओं की बोलती बंद हो जाय।

यह स्थिति जहां वर्तमान सत्ताधीशों को संतोष दे रही है। वहीं पूर्ववर्तियों में असंतोष पैदा कर रही है। कारण- वर्तमान के सारे सवालों का मुंह उनकी ओर ही खुला है। इन सवालों से बचने के लिए वे वर्तमान सत्ताधीशों पर सवालों की बौछार कर अपने ऊपर होनेवाले सवालों की दिशा बदलने का असफल प्रयास तो करते हैं, किन्तु सफल नहीं हो पा रहे। न ही उस ‘आमजन’ को संतुष्ट कर पा रहे हैं जिसके पास अपने प्रश्नों के सटीक उत्तर जाने बिना नये प्रश्न ग्रहण करने का अवकाश ही नहीं है।

ऐसा नहीं कि वर्तमान सत्ताधीश ‘जन’ के प्रश्नों से बच पाएंगे। पर ये समय उन्हें सवालों के जबाव देने की अपेक्षा का नहीं, उनके कार्य करने का है। जनसामान्य देख रहा है कि उनके द्वारा नियुक्त नये सेवक कार्यरत हैं। भले ही परिणाम कुछ भी निकलें। फिलहाल तो जबाव देने की जिम्मेवारी ‘कार्यरतों’ की नहीं ‘कार्यमुक्तों’ की है।

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