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पलायनकर्ता कौनः मजदूर, सरकारें या राजनीतिक दल

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

प्रवासी मजदूरों पर देशभर में सियासत का बाजार गर्म है। सबके अपने-अपने दर्द हैं। अपने-अपने दर्शन हैं। देश में प्रवासी मजदूरों के मददगार कम नहीं हैं। जिस तरह के दावे-प्रतिदावे हो रहे हैं, उससे लगता तो यही है। लेकिन मददगारों के दावों की अहमन्यता के बीच प्रवासी मजदूर बहुत पीछे छूट गए हैं। मजदूरों को उनके घर कौन-सा राजनीतिक दल वापस ला रहा है और कौन-सा नहीं, उनके हितों की कौन ज्यादा चिंता कर रहा, कौन कम, यह सवाल अहम नहीं है। अहम यह है कि उन्हें लाने को लेकर, उनकी सुविधाओं को लेकर इस देश का नेतृवर्ग कितना जिम्मेदार है?

महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में ट्रेन की पटरियों पर सो रहे 16 प्रवासी मजदूरों की मालगाड़ी से कटकर मौत हो गई। काम के अभाव में वे अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश लौट रहे थे। इस घटना को मजदूरों की नादानी कहा जा सकता है। क्या जरूरत थी रेल पटरी पर सोने की? वे पटरी से दूर हटकर भी तो सो सकते थे। जो जान बूझकर जहर पीएगा, उसका मरना तो तय है ही लेकिन जान-बूझकर जहर कौन पीता है? जिंदा कौन नहीं रहना चाहता, यह सोचने वाली बात है। लेकिन यह भी बड़ा सच है कि जब जीवन दुखमय हो जाए और प्रकाश की एक भी किरण न दिखे तो व्यक्ति हताश और निराश हो जाता है। मजदूर का जीवन वैसे भी काफी कठिन होता है। पहाड़ जैसी जिंदगी जीता है मजदूर। श्रम ही उसकी पूंजी होती है। रोज कुआं-खोदता और पानी पीता है। जिस दिन काम नहीं करता, उसके घर रोटी नहीं बनती। कोरोनाजन्य महाबंदी ने करोड़ों मजदूरों की जिंदगी में अंधेरा कर दिया है। बेरोजगारी के चलते उसके घर के चूल्हे जलने बंद हो गए हैं। रहने के लिए एक अदद छत तक नहीं बची। जिन्होंने किराए पर कमरे ले रखे हैं कि वे काम के अभाव में मकान मालिक को किराया कैसे देंगे? नसीहतें देना आसान है। आश्वासन की घुट्टी तो कोई भी पिला सकता है लेकिन यथार्थ के धरातल पर जीना कठिन है।

लॉकडाउन ने देश के करोड़ों मजदूरों के हाथ से काम छीन लिया है। वे फाकाकशी को मजबूर हैं। उन्हें लगता है कि मरना तो है ही, कोरोना से मरें या भूख से मरें। मजदूर समाज हताश और निराश हो चुका है। यह सच है कि सरकार मजदूरों को मदद दे भी रही है लेकिन वह ऊंट के मुंह में जीरे जैसी ही है। सरकार अगर मदद दे रही है तो व्यवस्था से जुड़े लोगों में कुछ ऐसे भी हैं जो मजबूरी का ठीक-ठाक फायदा उठाना जानते हैं। वे किसी भी तरह की सुविधा मुफ्त में नहीं देते। स्पेशल ट्रेनों से आने वाले यात्री अगर पैसे लेने का आरोप लगा रहे हैं, बस में बैठने वाले प्रवासी मजदूर अगर किराया लेने की बात कर रहे हैं तो इससे हालात की भयावहता का पता चलता है। प्रवासी मजदूर पृथक वास केंद्र से भाग रहे हैं तो इसका मतलब है कि उन्हें सरकार पर विश्वास नहीं है। वहां भोजन, बिजली-पंखे और अन्य नागरिक सुविधाओं का अभाव है। पुलिस और प्रवासी मजदूरों से संघर्ष की घटनाएं भी बढ़ी हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को इसकी गंभीरता समझनी होगी। सरकार की मंशा पर सवालिया निशान पैदा कर रहे ऐसे अधिकारियों और कर्मचारियों को सलाखों के पीछे भेजना होगा।

दूसरे राज्यों में फंसे मजदूर अपने घर जाना चाहते हैं तो उन्हें उनके घर जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। वैसे सरकार भी यही कह रही है कि कोरोना के बीच रहना सीखना होगा। जब कोरोना का कोई इलाज है ही नहीं तो हर व्यक्ति की इम्यूनिटी बढ़ाना सरकार का लक्ष्य होना चाहिए। इम्युनिटी प्याज और रोटी से तो बढ़ती नहीं। भूखे रहने से तो बढ़ती नहीं। स्वयंसेवी संगठन मदद स्वरूप मजदूरों को खाने के नाम पर क्या दे रहे हैं चार पूड़ी-सब्जी। इतने से मजदूरों का पेट तो भरता नहीं। इम्युनिटी बढ़ती है पोषक तत्वों के सेवन से। सस्ते गल्ले की दुकान से राशन लेने वालों को पता होता है कि गल्ले में कितनी धूल-गर्द और कचरा होता है। राशन का कम मिलना तो आम बात है। भ्रष्टाचार चरम पर है। इस खेल में बड़े अधिकारी भी बराबर के सहभागी होते हैं। राजनीतिक आरोपों-प्रत्यारोपों से बात नहीं बनने वाली। प्रवासी मजदूरों के हितों की चिंता की जानी चाहिए। जब काम नहीं है तो उन्हें उनके गांव-देहात पहुंचाया जाना चाहिए। इसके लिए स्पेशल ट्रेनों और बसों की व्यवस्था की जानी चाहिए। हर ट्रेन में कुछ अधिकारी भी बैठाए जाने चाहिए जिससे यह तय हो सके कि प्रवासी मजदूरों को नि:शुल्क उनके गंतव्य तक पहुंचाया गया। मजदूरों को भी धैर्य धारण करना चाहिए। उन्हें सरकारों की बात पर भरोसा रखना चाहिए। उनका जीवन इस देश के लिए बहुत जरूरी है। ज्यादा पैदल चलना किसी के लिए भी घातक हो सकता है। ऐसा करते कई मजदूर अपनी जान गंवा चुके हैं। कोरोना एक सबक है। हर राज्य सरकार को कुछ ऐसे प्रबंध करने होंगे कि एक राज्य के मजदूर को दूसरे राज्य में काम करने न जाना पड़े। एक जिले के नागरिक को दूसरे जिले में न जाना पड़े।

16 प्रवासी मजदूरों की मौत पर शोक जता देने या फिर उन्हें मुआवजा दे देने भर से ही काम नहीं चलेगा। किसी मजदूर के महाराष्ट्र के जालना से 40 किलोमीटर इसलिए पैदल चलना पड़ा कि उन्हें सरकार की नीति और नीयत पर यकीन नहीं था। वे रेल पटरी से अपने गांव पैदल इसलिए जा रहे थे कि सड़क मार्ग पर उन्हें पकड़े जाने का भय था। कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि चालक ने मालगाड़ी क्यों नहीं रोकी? रोक देते तो कहते कि रेल नियमावली तोड़कर गाड़ी क्यों रोक दी? सवाल-जवाब का यह सिलसिला चलता रहेगा। असल सवाल यह है कि मजदूर पलायन को मजबूर क्यों हो रहे हैं? उन्हें रोकने के लिए अगर सरकारों के पास कोई योजना है तो वे उसे सार्वजनिक क्यों नहीं कर रही हैं? जो महाराष्ट्र सरकार पांच-पांच लाख का मुआवजा अब दे रही है, अगर उसने पहले मजदूरों के हितों का ध्यान रखा होता तो यह नौबत ही न आती। मुआवजा देना किसी समस्या का निदान नहीं है। मजदूरों को काम देना जरूरी है।

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने खत लिखकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर पश्चिम बंगाल के प्रवासी मजदूरों की वापसी न होने देने का आरोप लगाया है। इसे लेकर भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच राजनीति रस्साकशी तेज हो गई है। कांग्रेस तो पहले दिन से ही मोदी सरकार को घेर रही है। केंद्रीय मंत्री मोहम्मद अब्बास नकवी ने तो यहां तक कह दिया है कि पूर्व के पीएमओ और मौजूदा पीएमओ में काफी फर्क है। विचारणीय यह नहीं कि कौन राजनीतिक दल किसे क्या कह रहा है? विचार योग्य तो यह है कि कौन राजनीतिक दल जरूरतमंदों के व्यापक हित के लिए क्या कर रहा है? शब्दों की जुगाली करने से न तो कोरोना काल से निकली बेरोजगारी जाने वाली है और न ही गरीबी। अगर प्रवासी मजदूरों को जो बेरोजगार हो चुके हैं या हो रहे हैं ,केंद्र और राज्य सरकारें उन्हें मदद भर दें तो भी उन्हें प्रतिमाह 12 हजार करोड़ डालर खर्च करने होंगे। वैसे भी भारत में यह बीमारी लंबे समय तक रहने वाली है, ऐसे में काम-धाम को व्यापारिक गतिविधियों को चाहे वे छोटे स्तर की हों या बड़े स्तर की, बंद रखना मुनासिब होगा। सरकार को सूझ-बूझ के साथ सभी उद्योगों को प्रोत्साहन देना होगा और लोगों को भी सामाजिक दूरी के सिद्धांत का पालन करना होगा।

लॉकडाउन में देश की अर्थव्यवस्था चरमाई है। भारतीय रिजर्व बैंक ने अर्थव्यवस्था में समय-समय पर धन डालकर सरकार को बड़ी राहत दी है लेकिन सरकार को इतना तो सोचना ही होगा कि बिना काम के धन नहीं आता और बिना धन के देश नहीं चला करता। प्रवासी मजदूरों की समस्या दिन-ब-दिन जटिल होती जा रही है। इसपर सुस्पष्ट नीति बनानी होगी। रो-ब-रोज नियम बदलने से संभ्रम के हालात बनते हैं। प्रवासी मजदूरों में बस और ट्रेन की उपलब्धता को लेकर कोई भ्रम न हो, इस नाते सभी राज्यों के अधिकारियों की जिम्मेदारी बनती है कि वे कारखानावार, उद्योगवार कर्मचारियों का ब्यौरा मंगाए और उन्हें उनके घर भेजने की व्यवस्था करें। केंद्र व राज्य सरकारों को चाहिए कि वह दस दिन तक लगातार रेल और बस चलाकर करोड़ों मजदूरों को उनके घर पहुंचाए क्योंकि अपनों के बीच बड़ी से बड़ी आपदा का भी सामना किया जा सकता है। मौजूदा समय सूझ-बूझ का है इसलिए राजनीतिक दल परस्पर लड़ने और जनता का ध्यान मूल समस्या से भटकाने की बजाय अपने दायित्वों पर ध्यान दें। मजदूर देश की विकास यात्रा के साक्षी हैं। उनके हितों की रक्षा की जिम्मेदारी पूरे देश की है। इसे निभाने में संकोच और इंतजार किस बात का है। किसी विशेष आमंत्रण की जरूरत क्यों? अच्छा होता कि सभी राजनीतिक दल, सभी सरकारें इतनी मोटी-सी बात समझ पातीं। स्वयंसेवी संगठन अपनी जिम्मेदारियों को निभा पाते। समझा जाना चाहिए कि पलायन कौन कर रहा है, मजदूर या हम? हम अपनी जिम्मेदारी से न भागते तो आज यह हालात न होते।

(लेखक हिंदुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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