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10 बड़े राज्यों और 360 लोकसभा सीटों पर जानिए बीजेपी के सामने कैसी है संयुक्त विपक्ष की चुनौती

नई दिल्ली (ईएमएस)। कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस के पोस्ट पोल एलायंस के बाद सीएम के तौर पर एचडी कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में विपक्षी एकजुटता दिखी। इसे दिखाने के लिए सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने अखिलेश, मायावती, ममता बनर्जी, एन चंद्रबाबू नायडू, तेजस्वी यादव, सीताराम येचुरी समेत अन्य के साथ मंच साझा किया। ऐसा 2019 में बीजेपी और पीएम मोदी के खिलाफ एक मजबूत फ्रंट का संदेश देने के लिए भी किया गया। हालिया कैराना उपचुनाव में आरएलडी कैंडिडेट के रूप में विपक्ष के साझे उम्मीदवार की जीत ने इस आइडिया को और आगे ही बढ़ाया है। 15 सीटों पर हुए उपचुनाव में बीजेपी केवल पालघर लोकसभा सीट और थराली विधानसभा सीट बचा पाई। इसमें पालघर में बहुकोणीय लड़ाई देखने को मिली। हमने लोकसभा सीटों के हिसाब से टॉप 10 बड़े राज्यों में एंटी बीजेपी फ्रंट की संभावनाओं की पड़ताल की है। इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात को शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि यहां बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही सीधा मुकाबला होता रहा है। हालांकि सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डवलपिंग सोसायटीज के डायरेक्टर संजय कुमार का कहना है कि बीजेपी के खिलाफ राष्ट्रीय गठबंधन कागज पर अच्छा और बेहतर दिखता है। लेकिन अपने देश की विविधता और पार्टियों की बहुतायत की वजह से ऐसे गठबंधन केवल राज्य स्तर पर ही काम कर सकते हैं। इन 10 राज्यों में लोकसभा की 360 सीटें (दो तिहाई सीटें) हैं। अगर बीजेपी 2014 की तरह उत्तर और पश्चिम के ज्यादा राज्य नहीं जीत पाती तो उसे दक्षिण और पूरब के सूबों से अपने इस नुकसान की भरपाई करनी होगी। यह करना इतना आसान नहीं होगा, क्योंकि इन इलाकों में बीजेपी इतनी मजबूत नहीं है।

उत्तर प्रदेश : यूपी में परंपरागत प्रतिद्वंद्वी मानी जाने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने एक साथ आकर बीजेपी को पहले गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में हराया। इसके बाद इसी को कैराना के उपचुनाव में दोहराया गया। अगर एसपी-बीएसपी (प्लस कांग्रेस-आरएलडी) की यह दोस्ती 2019 तक जारी रही तो बीजेपी के लिए मुश्किल हो जाएगी। पत्रकार शरत प्रधान का कहना है कि एक साथ आना अखिलेश और मायवती की राजनीतिक मजबूरी हो गई है। इसके बिना ये मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी को नहीं रोक पाएंगे। एक दूसरा सवाल यह खड़ा होता है कि क्या इन दोनों पार्टियों के कोर वोटर्स (एसपी के लिए पिछड़े और मुस्लिम, बीएसपी के लिए दलित) एक दूसरे के कैंडिडेट्स को सपोर्ट करेंगे? सीएसडीएस के संजय कुमार कहते हैं कि अखिलेश की तुलना में अपने वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता मायावती में ज्यादा है।

महाराष्ट्र: सूबे में बीजेपी के साथ सरकार चलाने वाली और केंद्र में एनडीए का हिस्सा शिवसेना ने खुद यहां विपक्षी एकजुटता की वकालत की है। हालांकि शिवसेना ने यह भी कहा है कि वह 2019 का आम चुनाव और विधानसभा चुनाव अकेले लड़ सकती है। यहां कांग्रेस और एनसीपी फिर एक बार एक साथ आ सकती हैं। ऐसे में शिवसेना पर भी दबाव पड़ सकता है कि वह इस गठबंधन में शामिल हो। एक जटिल तस्वीर यह बन सकती है कि विधानसभा चुनाव अगर आम चुनावो के साथ न हों तो बाद में हों। शिवसेना विधानसभा चुनाव अकेले भी लड़ सकती है। संजय कुमार का कहना है कि आपको विधानसभा चुनावों के बारे में बिना सोचे हुए आम चुनावों के लिए गठबंधन करना होगा, भले ही वह केवल महीने भर बाद ही क्यों न हो।

पश्चिम बंगाल: पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी भी कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में मौजूद थीं। यह शायद इस बात का भी संकेत था कि वह कांग्रेस के नेतृत्व वाले एंटी बीजेपी फ्रंट का हिस्सा हो सकती हैं। हालांकि तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव के थर्ड फ्रंट की मांग को भी समर्थन दिया है। कांग्रेस पश्चिम बंगाल में टीएमसी के साथ जाएगी या लेफ्ट के, अगर इस प्रश्न को हटा दें तो भी यहां की लड़ाई बीजेपी त्रिकोणीय बनाएगी, जो 2016 के विधानसभा चुनावों में अपना 2014 का प्रदर्शन दोहरा नहीं पाई थी।

बिहार: नीतीश कुमार ने जुलाई 2017 में आरजेडी और कांग्रेस के साथ अपना महागठबंधन तोड़ लिया था। एनडीए का हिस्सा बनी जेडीयू को जोकीहाट विधानसभा चुनाव में आरजेडी से हार का सामना करना पड़ा है। ऐसे में सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या नीतीश अपने फैसले पर पुनर्विचार करेंगे? क्योंकि एंटी बीजेपी फ्रंट में शामिल होने का सीधा मतलब उस टीम का हिस्सा बनना होगा, जिसमें आरजेडी शामिल रहेगी। शरत प्रधान का कहना है कि नीतीश अब आरजेडी से हाथ नहीं मिला सकते। प्रधान के मुताबिक नीतीश उस गठबंधन की धुरी बनने की उम्मीद नहीं कर सकते जो कांग्रेस के इर्द-गिर्द घूमेगा।

तमिलनाडु: दिसंबर 2016 में जयललिता की मौत के बाद से ही तमिलनाडु की राजनीति डंवाडोल दिख रही है। बीजेपी यहां कोई मेजर प्लेयर नहीं है। उसके पास यहां लोकसभा का एक सांसद है। ऐसा माना जा रहा है कि बीजेपी को यहां सत्ता पर काबिज एआईएडीएमके का समर्थन है। बीजेपी को यहां एआईएडीएमके और रजनीकांत के अलावा अन्य छोटे दलों के साथ गठबंधन की उम्मीद है। वहीं कांग्रेस को उम्मीद है कि ओल्ड पार्टनर डीएमके का साथ मिलेगा। बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति का यहां कोई खास प्रभाव न होने और कोई बड़ा नेता न होने के नाते दूसरे दलों पर निर्भरता ज्यादा है।

कर्नाटक: यहां राज्य में सरकार बनाने के बाद अब कांग्रेस और जेडीएस ने 2019 के चुनावों के लिए भी गठबंधन का एलान कर दिया है। लेकिन अगले कुछ महीनों में इस गठबंधन के भविष्य का पता चल जाएगा कि इसमें स्थायित्व है भी या नहीं। जेडीएस पहले भी गठबंधनों को बीच में छोड़ आगे बढ़ चुकी है। ऐसे में कांग्रेस निश्चिंत नहीं हो सकती कि कुमारस्वामी भरोसेमंद सहयोगी बने रहेंगे।

आंध्र प्रदेश: आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं देने के सवाल पर चंद्रबाबू नायडू ने टीडीपी को एनडीए से अलग कर लिया है। बीजेपी आंध्र में नायडू के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी वाईएस जगनमोहन रेड्डी पर हमला करने से बच रही है। ऐसे में 2019 में बीजेपी के जगन के साथ जाने की संभावना बन रही है। आंध्र प्रदेश में एंटी बीजेपी यूनिटी का सवाल नहीं उठता, क्योंकि बीजेपी की यहां मौजूदगी ही नहीं है। उनका कहना है कि दोनों पार्टियों में से कोई भी 2019 के चुनावों के बाद बीजेपी से गठबंधन कर सकती है, पहले नहीं। उनके मुताबिक विशेष राज्य के दर्जा के मुद्दे की वजह से पहले गठबंधन करना एक तरह का बोझ ही होगा।

ओडिशा: हालांकि बीजेपी ने यहां बीजू जनता दल (बीजेडी) के विपक्ष के तौर पर कांग्रेस की जगह ले ली है। लेकिन ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक अक्सर अपने भाषणों में मोदी पर सॉफ्ट दिखते हैं। पीएम मोदी और अमित शाह भी रिटर्न में कुछ ऐसा ही प्रदर्शित करते हैं। अगर जरूरत पड़ी तो बीजेडी बीजेपी के साथ आएगी। ऐसे में अगर बीजेडी सभी 21 सीटें जीत भी लेती है तो भी यह बीजेपी के लिए हार नहीं होगी। सुधीर पटनायक के मुताबिक अगर ऐसा होता है तो त्रिकोणीय मुकाबला बीजेडी और बीजेपी के लिए फायदे का ही सौदा होगा। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की तरह ओडिशा में भी विधानसभा चुनाव आम चुनावों के साथ ही होंगे।

तेलंगाना: बहुतों का मानना है कि आंध्र प्रदेश के मुकाबले तेलंगाना में बीजेपी की स्थिति बेहतर है। हालांकि चंद्रशेखर राव नॉन बीजेपी, नॉन कांग्रेस गठबंधन की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि वह नॉन कांग्रेस के लिए ज्यादा ही गंभीर हैं। टीआरएस निश्चित तौर पर बीजेपी को कांग्रेस पर तरजीह देगी। लेकिन 13 फीसदी मुसलमान आबादी को देखते हुए टीआरएस प्री पोल गठबंधन करने को लेकर जरूर चिंतित हो सकती है। कांग्रेस यहां दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है, जो तेलंगाना बनाने के मुद्दे पर राव की टीआरएस को टक्कर देने वाली है।

केरल: 2014 में बीजेपी को केरल में एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी। लेकिन पार्टी को 10.5 फीसदी के रूप में सम्मानजनक वोट जरूर मिला था। 2016 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को यहां से अपना पहला विधायक मिला था। हालांकि यूपी की तरह यहां बीजेपी ताकतवर नहीं है, इसलिए दो परंपरागत प्रतिद्वंद्वियों कांग्रेस और लेफ्ट में यहां गठबंधन की जल्दबाजी भी नहीं दिख रही है।

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