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आयुर्वेद: हमारी निष्ठा एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की छटपटाहट

– डॉ. मोक्षराज

भारत में ही नहीं बल्कि प्राचीन सभ्यताओं वाले अनेक देशों को सांस्कृतिक, शैक्षिक एवं सामाजिक स्तर पर पंगु बनाने के लिए अंग्रेजों के षड्यंत्रों की जितनी निंदा की जाए कम है। उन्होंने भारत की प्रतिभाओं को भी हीनभावना से ग्रस्त करने के लिए 200 वर्ष पहले ही खाका तैयार कर लिया था। भारत के पावन सांस्कृतिक मूल्यों पर प्रहार करने के लिए जहाँ उन्होंने प्रोफ़ेसर मैक्समूलर को दायित्व सौंपा, वहीं भारतीय शिक्षा प्रणाली को नष्ट करने के लिए लार्ड मैकाले को आगे किया। भारतीय समाज की सुदृढ़ व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के लिए भी इन्होंने भेदभाव व फूट की नीति का अनुसरण किया। भारत के कला-विज्ञान की चोरी कर ये रि-इंजीनियरिंग करते रहे हैं, साथ ही वे चिकित्सा के क्षेत्र में भी अपने षड्यंत्रों से बाज़ नहीं आए तथा उनके द्वारा सन् 1835 के बाद आयुर्वेद की परंपरा को योजनाबद्ध ढंग से नष्ट किया जाना आरम्भ हुआ।

भारत में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व तथा कुछ दशकों बाद तक हमारी आयुर्वेद की विद्या स्वाभाविक रूप से गाँव-गाँव तक प्रचलित थी। भारत के गाँव एवं नगरों में प्रायः निःशुल्क या नगण्य द्रव्य में गंभीर से गंभीर रोग का आयुर्वेदिक उपचार हो जाता था। क्योंकि भारतीय धर्मशास्त्रों में रस विक्रय, शहद, दूध-घी एवं औषधि के विक्रय को निंदनीय माना गया है, अतः अधिकांश आयुर्वेदिक चिकित्सक उसी पावन परंपरा का आश्रय लेते थे, जिसे कालांतर में मूल्यहीनता के अंधेरे में धकेल दिया गया। प्रायः सभी गांवों में एक-दो कुशल वैद्य सहजता से मिल ही जाते थे एवं गाँव के चरवाहे, ग्वाले तथा साधारण किसान भी अपने आसपास या जंगल की सैकड़ों औषधियों-वनस्पतियों के गुण-दोष एवं उनके उपयोग को भलीभाँति जानते थे। किन्तु कालांतर में अंग्रेज़ी ढर्रे से केवल साक्षर हुए हम लोग उस परंपरा से इतने दूर चले गये कि हमारा मस्तिष्क बॉटनी व आयुर्वेद विषय के द्वारा भी अंग्रेज़ी नामों की भेंट चढ़ने लगा। जिस गोचर भूमि या जंगल में ऋतु अनुसार औषधियाँ नैसर्गिक रूप से उगती व पनपती थी, वह भूमि या तो एलोपैथिक चिकित्सालय या किसी सरकारी योजना के लिए घेर ली गईं या बिलायती बबूल अथवा घातक गाजर-घास से ढंक गई या फिर उसपर भू-माफ़िया ने कंक्रीट का ढेर निर्मित कर दिया।

विभिन्न दवा कम्पनियों के लुभावने प्रचार व सूटबूट वाले प्रचारकों तथा आकर्षक पैकिंग ने भारत के जनमानस व सत्तासीनों के हृदय में यह भ्रम फैलाने में सफलता पाई कि चिकित्सा के नाम पर केवल ऐलोपैथी ही श्रेष्ठ है। अंग्रेज़ी दवाओं के व्यापार की मोहिनी ने सरकारों को इतना सम्मोहित कर दिया था कि वे 2013-14 तक भी चिकित्सा सुविधाओं के नाम पर घोषित बजट का 98.3% भाग केवल ऐलोपैथी से संबन्धित विभिन्न योजनाओं के खाते में डालने लगे तथा शेष बचे 1.7% बजट में आयुर्वेद, योग-प्राकृतिक, यूनानी, सिद्ध, होम्योपैथी आदि को समेटते थे। उदाहरण के तौर पर 2013-14 में पूर्व सरकारों ने आयुष के लिए सर्वाधिक बजट रखा जो ऐलोपथिक की तुलना में औसतन 1:60 था। जहाँ हैल्थ एंड फैमिली वेलफेयर, नव राष्ट्र हैल्थ मिशन तथा मेडिकल एडजुकेशन के निमित्त 63336 करोड़ था वहीं आयुर्वेद, योग-प्राकृतिक, यूनानी, सिद्धा, होम्योपैथी को 1069 करोड़ ही था। आयुर्वेद पद्धति को हतोत्साहित करने के लिए इससे बड़ा क्या प्रमाण हो सकता है।

आयुर्वेद सहित अन्य सभी चिकित्सा पद्धतियों के साथ निरंतर यही सौतेला व्यवहार कई दशकों तक चलता रहा। जिसके कारण एक ओर जहाँ आयुर्वेद विभाग में नीरसता व हीन भावना उत्पन्न हुई और उसके कार्मिक कुंठा का शिकार होने लगे। वहीं दूसरी ओर ऐलोपैथी का अहंकार आसमान छू रहा था। आयुर्वेद के साथ हो रहे इस अन्याय, अत्याचार व सौतेले व्यवहार से भारत के अनेक उच्च कोटि के वैद्य बहुत चिंतित थे, किंतु बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में बिक चुका तंत्र भारत की मूल परंपरा का शत्रु बन बैठा था। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा अंग्रेज़ी दवाओं के उत्पादन और वितरण का भी ऐसा मकड़़जाल बुना गया कि उसमें भारत की सरकारों के निर्णय भी अदूरदर्शी सिद्ध हुए। घर को लगी थी आग घर के चिराग से। ऐसी विकट परिस्थिति में भी कुछ गुरुकुलों, धर्मार्थ ट्रस्टों ने आयुर्वेद की परंपरा को बचाए रखने का प्रयत्न जारी रखा। इन संस्थाओं में काँगड़ी गुरुकुल, झज्जर गुरुकुल, डावर, कालेडा, मोहता, ऊँझा, हमदर्द आदि प्रमुख फार्मेसी संघर्ष कर रही थीं। किन्तु, विगत 20 वर्ष से पतंजलि योगपीठ व दिव्य योग मंदिर ने इस दिशा में एक विशाल क्रांति का सूत्रपात किया जिसके परिणामस्वरूप स्वामी रामदेव एवं आचार्य बालकृष्ण ने कुछ हद तक 200 वर्षों से चले आ रहे विदेशी षड्यंत्रों के चक्रव्यूह को तोड़ डाला तथा देश विदेश की जो एलोपैथी से जुड़ी जानी-मानी संस्थाएँ व उनके नुमाइंदे पतंजलि का मज़ाक उड़ाते थे, वे तथा उनके हजारों चहेते अपने रोगियों को आसन, प्राणायाम, ध्यान, एलोवेरा तथा गिलोय का सेवन करना लाभप्रद बताने लगे।

आयुर्वेद एवं अन्य वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को महत्व देने के लिए 6 वर्ष पूर्व मोदी सरकार ने आयुष मंत्रालय के रूप में एक स्वतंत्र अस्तित्व विकसित किया तथा श्रीपद नाईक को उसका पहला मंत्री नियुक्त कर अपनी सकारात्मक नीयत व इच्छा शक्ति का परिचय दिया। इसी मंत्रालय के माध्यम से विश्व भर में योग दिवस की धूम मची तथा भारत ने यह प्रमाणित किया कि वह किसी मानव के साथ सौदा नहीं बल्कि सच्ची सेवा करना चाहता है। यही कारण रहा कि भारत ने योग को बेचा नहीं बल्कि जन-जन को परोसा है। भारत का यह पवित्र कार्य उन धूर्त्त ताक़तों के गाल पर तमाचा है, जिन्होंने विश्व को केवल एक बाज़ार मानकर दर्द से कराहती मनुष्यता को कई दशकों तक लगातार लूटा है। लागत से कई सौ व कई हजार गुना मुनाफ़ा कमाकर भी जिन लोगों का पेट नहीं भरा था, उन निर्दयी ड्रग माफ़ियाओं ने अनेक ग़रीब देशों के नागरिकों के अंगों तक को बेचने में संकोच नहीं किया। साथ ही ऐलोपैथिक दवाओं के साइड इफ़ेक्ट एवं अनेक कंपनियों द्वारा आयुर्वेद के नुस्खों को चुराकर अंग्रेज़ी दवाओं में बदलने की एक अलग ही कहानी है!

वर्षों से सम्पूर्ण विश्व का उत्पीड़न करने वाली इन राक्षस कंपनियों को बाबा रामदेव से तक़लीफ़ तो होगी ही। स्वामी रामदेव अपने देश की सेवा के साथ-साथ सम्पूर्ण विश्व में योग के प्रचार के लिए भी जाने जाते हैं। वे अपने लाइव कार्यक्रमों में लोगों को नि:शुल्क परामर्श देकर अपनी उदार संत परंपरा का परिचय देते हैं। सही मायने में देखा जाए तो वे अपनी औषधियाँ या अन्य द्रव्य बेचते नहीं बल्कि भारत की विभिन्न समस्याओं से लड़ने व धूर्त्त ड्रग माफ़ियाओं की विदाई के लिए अपेक्षित अर्थतंत्र तैयार करते हैं। उनके हृदय में सदैव आयुर्वेद के उत्थान की धड़कन स्पष्ट सुनाई देती है। स्वामी रामदेव एवं आचार्य बालकृष्ण ने संपूर्ण विश्व का बड़ा उपकार किया है, वे किसी विदेशी या स्वदेशी पुरस्कार के मोहताज नहीं हैं किन्तु उनका पुरुषार्थ नोबल पुरस्कार के मानदंडों से कहीं अधिक बड़ा है। आधुनिक युग में वे आयुर्वेद के भी पुनरुद्धारक माने जाने योग्य हैं। वे भारत के लाखों वैद्यों, प्राकृतिक चिकित्सकों, योग शिक्षकों, किसानों, चरवाहों के हृदय से हीन भावना को मिटाकर अप्रतिम स्वाभिमान का संचार कर चुके हैं। उनका यह कार्य आयुर्वेद के क्षेत्र में युगान्तकारी सिद्ध होगा तथा षडयंत्रकारी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पोल खोलने का सशक्त माध्यम बनेगा। यह एक ऐसा समय है, जब हम उदीयमान भारत के विरुद्ध संचालित सभी षड्यंत्रों का मुँहतोड़ जवाब दे सकते हैं।

(लेखक वॉशिंग्टन डीसी में भारतीय संस्कृति शिक्षक हैं।)

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