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चुनौती को अवसर में बदलें पूर्वी राज्य

– आर.के. सिन्हा

कोरोना वायरस के बहाने देश दीन-हीन प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक हालत से रूबरू हो गया है। कोराना वायरस की चेन को ध्वस्त करने के लिए शुरू किए गए देशव्यापी लॉकडाउन के बाद पैदा हुए हालातों से समझ आ गया कि हमारे यहां बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और असम आदि राज्यों के मजदूरों को लेकर कई राज्य सरकारों और नौकरशाही का रवैया कितना निर्ममतापूर्ण रहा है।

गुजरात में भूखे-प्यासे प्रवासी मजदूरों पर लाठियां बरसाई जाती है। पंजाब, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में भी इन्हें इंसान तक नहीं समझा गया। अब कहीं जाकर इन्हें घर भेजने की व्यवस्था शुरू हुई है। यह पहले भी हो सकती थी। इसके कार्यान्वयन में देरी ने सशक्त मजदूरों का दयनीय और मजबूर दृश्य देश के सामने प्रस्तुत किया है, जिससे बचा जा एकता था। इसके लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की लचर आपदा प्रबंधन, लापरवाह कार्य योजना से मोदी सरकार की नेक छवि बदनाम हुई है। ये मजबूर मजदूर लंबे समय तक अपने घरों से हजारों मील दूर दर-दर की ठोकरें खाते रहे थे। मेरे फेसबुक पर हजारों प्रवासी मजदूरों ने गुहार लगाई। इनसे वाहियत किस्म की अपेक्षाएं की जा रही हैं। जरा सोचिए कि जो अधिकांश प्रवासी मज़दूर हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाओं में भी अपना नाम नहीं लिख सकते उन्हें स्मार्टफ़ोन पर घर जाने के लिये फ़ॉर्म भरने के लिए कहा गया। वह भी अंग्रेज़ी में। किसी भी राज्य का हेल्पलाइन नंबर और नोडल अधिकारियों का नंबर तो बस खानापूरी के लिये ही था। खुद कोशिश करके फार्म डाउनलोड करके भरकर देख लीजिए। आपको जन्नत की हकीकत समझ आ जाएगी। कोई व्यवस्था इतनी अमानवीय कैसे हो सकती है? क्या ये नौकरशाह एक गरीब अर्ध शिक्षित मजदूर की क्षमता या मनोदशा का आकलन करने में असमर्थ थे । यह ठीक है कि अब ज्यादातर मजदूर स्मार्टफोन भी रखते हैं । वाट्सअप भी करते हैं, यूट्यूब पर फ़िल्में भी देखते हैं । लेकिन, एक करोड़ मजदूरों में लाख दो लाख को छोड़कर वे इन्टरनेट और डाटा का काम तो नहीं जानते न? यदि वे इतना ही जानते होते तो मजदूरी करने को मजबूर क्यों होते? नौकरशाहों ने मजदूरों के कल्याण की जो कागजी योजना बनाई वह मजदूरों को पागल करने वाला है।

पंजाब के लुधियाना, अमृतसर तथा जालंधर वगैरह शहरों में लाखों बिहार तथा झारखंड के मजदूर फंसे रहे। वे दाने-दाने को मोहताज थे। पर राज्य के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को तो राज्य में शराब की दुकानें खोलने की जल्दी पड़ी थी। वे पंजाबी टीवी चैनलों को दिए इंटरव्यू में शराब के ठेके खोलने पर पूरा ज्ञान बांट रहे थे। पंजाब को खेती में अभूतपूर्व सफलता बिहारी मजदूरों की खून-पसीने की वजह से ही मिली है। पर मजाल है कि अमरिंदर सिंह या उनके किसी मंत्री ने इन मेहनतकशों के लिए कभी दो शब्द बोले भी हों। ये प्रवासी मजदूर राशन तथा दवा की भारी किल्लत का सामना करते रहे। पर इनके हक में वहां पर कोई नहीं खड़ा हुआ। पंजाब सरकार यह न भूले कि कल्याणकारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में भीषण आपदाकाल में वंचित वर्ग की मदद करने का दायित्व स्थानीय सरकार का ही होता है। यह कोई अहसान नहीं होता। पर महलों में रहने वालों को मजदूर की चिंता कब होती है। अमरिंदर सिंह जी तो राजपरिवार में जन्मे हैं । दिनभर मेहनत करके रात की रोटी का इंतजाम करने वालों की चिंता इन्हें कैसे होगी।

गुजरात में तो सच में हद ही हो गई। वहां मजदूरों को पीटा गया। सूरत में लॉकडाउन के दौरान झोंपड़ियों में बंद मज़दूर भूख से बेहाल होकर जब रोटी के जुगाड़ के लिए बाहर निकले तो पुलिस ने उनपर लाठियाँ बरसानी शुरू कर दीं। इतना अमानवीय व्यवहार अपने ही देश में मजदूरों के साथ हुआ। पुलिसिया एक्शन के बाद मजदूरों ने कई राजमार्गों पर उग्र विरोध किया। किसने सोचा था कि इन मेहनतकशों को यह दिन भी देखना पड़ेगा। बेशक भूख मनुष्य को बहुत साहसी बना देती है। अपने भूखे बच्चे का पेट भरने के लिए मज़दूर भी जान पर खेल गए। गुजरात पुलिस की यह कार्यशैली बड़ी निर्ममतापूर्ण रही है। उनसे यह अपेक्षा तो नहीं की थी जबकि, वहां के पुलिस महानिदेशक स्वयं बिहार के मिथिलांचल के उन्हीं गावों से आते हैं जो पूरे देश को लाखों की संख्या में मजदूर भेजता है। अगर प्रवासी मजदूर यह ठान लें कि जिन राज्यों में इनके साथ दुर्व्यवहार हुआ है, वे उन राज्यों में वापस नहीं जायेंगे तो क्या होगा। सारे देश ने देखा कि प्रवासी मजदूर किन भारी किल्लतों को झेलने को मजबूर हुए। कितने अपने घरों की तरफ पैदल जाने के दौरान सड़कों पर गिरकर मर भी गए।

खैर, मोदी सरकार ने अंततः मजदूर स्पेशल ट्रेनों को चलाने का फैसला किया है यह स्वागत योग्य है। यानी अब प्रवासी मजदूर अपने-अपने घरों को वापस चले जाएँगे। अब दूरदराज इलाके में फंसे ज्यादातर प्रवासी मजदूरों की वतन वापसी हो जाएगी। इसके बाद उन आंसू भरी दस्तानों में शायद कुछ कमी आए जो बीच रास्तों में खौफनाक मौतों से जुड़ी होती है। सचमुच जब यह जानने को मिलता है कि महाराष्ट्र से दस युवा मजदूर साइकिलों से अपने गांव के लिए निकले थे। वे करीब 350 किलोमीटर चल चुके थे। मध्य प्रदेश की सीमा में पहुंचे। तेज धूप और थकावट के चलते उनका एक साथी निढाल हुआ तो सब रुके। इलाज मिलने के पहले ही वो चल बसा। इसी तरह पंजाब से अलीगढ़ पैदल जाता एक मजदूर ग्रेटर नॉएडा में भूख और थकान से चल बसा। मुंबई से कितने ही असहाय मजदूर साइकिलों पर उड़ीसा तक चल गए। जरा सोचिए कि इतने कठिन सफर के दौरान उन्हें कितने अवरोध और दिक्कतें आई होंगी। कितने ही स्थानों पर पुलिस ने लाठियां बरसाई होंगी । यह भी ठीक है कि रास्ते में ही कुछ लोगों ने इन गरीबों को भोजन और विश्राम का इंतजाम भी किया होगा।

जहां प्रवासी मजदूरों को लेकर अधिकतर राज्यों का रुख पत्थर दिल रहा, वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने साबित किया कि अब भी कुछ राज्यों की सरकारों का जमीर मरा नहीं है। योगी ने प्रवासी मजदूरों को सुरक्षित अपने घरों तक पहुंचाने के लिए सबसे पहले 10 हजार बसों की व्यवस्था करने का फैसला किया है। अन्य राज्यों से आने वाले मजदूरों की मेडिकल स्क्रीनिंग के लिए 50 हजार से अधिक मेडिकल टीमें लगाई जा रही हैं । रेल द्वारा मजदूरों की वापसी के लिए पहली पहल झारखण्ड के युवा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने की जो प्रशंसनीय है।

इस बीच, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक से ट्रेनें प्रवासी मजदूरों को लेकर उत्तर प्रदेश पहुंच रही हैं। इनमें आए लोगों को जिलों में बनाए गए क्वारनटीन सेंटर में भर्ती कराया जाएगा। फिर उनका मेडिकल टेस्ट होगा। उसके बाद ये घर जा सकेंगे।

खैर इस संक्रमण काल में मानवीयता की तमाम मिसालें भी सामने आ रही हैं। इनसे कुछ तो सुकून मिलता है कि समाज ने गरीब प्रवासी मजदूरों की मदद की। उन्हें सहारा दिया जब सरकारें अपनी जिम्मेदारी से भाग रही थीं। अब चूंकि देशभर में प्रवासी मजदूरों की घर वापसी हो रही है तो सरकारों को उनके लिये तत्काल रोजगार के बारे में सोचना होगा। एक करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूर पूरब लौट रहे हैं। इनके रोजगार का बड़ा संकट उत्पन्न होगा। इससे निपटने की चुनौती भी रहेगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो देश को भरोसा दिलाया है कि देश आर्थिक मोर्चे पर ठीक है। उनके दावे-वादे पर भरोसा करना होगा। लेकिन धूर्त, लापरवाह और भ्रष्ट नौकरशाहों पर भी शिकंजा कसना होगा।

अब स्थानीय सरकारों को मजदूरों को उनके घरों के आसपास ही रोजगार के विकल्प देने होंगे। इस लिहाज से इन्हें कुटीर उद्योगों या कृषि से सम्बंधित छोटे उद्योगों से जोड़ा जा सकता है। बेशक ये काम तुरंत तो नहीं हो सकता। पर इस तरफ गंभीरता से तत्काल शुरू की जाने लायक योजनायें बनानी होंगी। इन मजदूरों के बच्चों की शिक्षा की तरफ भी सोचना होगा। इनके बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलवाने की पहल भी सरकारें करेंगी ही ऐसी आशा की जाती है। यही मौका है जब योगी जी अपनी एक जनपद-एक उद्योग की योजना को मूर्त रूप दे सकते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा वापस लौटे मजदूरों से उनके स्किल की जानकारी प्राप्त कर उसका डाटाबेस तैयार कर लिया जाये तो इन राज्यों में सम्बंधित उद्योग स्थापित करने के लिए इच्छुक उद्योगपतियों की लम्बी कतारें इन पूर्वी राज्यों में लग सकती हैं क्योंकि उद्योगों को सबसे भारी समस्या कुशल कामगारों की कमी ही तो होती है । इस तरह, ये मजबूर मजदूर अपने प्रदेशों के लिए निवेश खींचने वाली एक मजबूत शक्ति बनकर उभर सकते हैं।

एक बात जान लें कि अब ये प्रवासी मजदूर उन स्थानों पर वापस जाने में जरूर हिचकेंगे जहां पर इनके साथ जानवरों की तरह का व्यवहार हुआ है। गरीब इंसान भी स्वाभिमानी तो होता है। उसे याद रहता है कि किसने उसके साथ कब और कैसा व्यवहार किया। अगर वे वापस नहीं आएंगे तो महानगरों में बनने वाली इमारतों को खड़ा करने के लिए मजदूर नहीं मिलेंगे। ये ही गरीब तो खड़ी करते हैं गगनचुंबी इमारतें और बड़े-बड़े हाइवे और ओवरसीज़। अब दूसरे राज्यों में जाकर फसलों को उगाने के लिए भी मजदूर नहीं मिलेंगे। यह बात पंजाब और हरियाणा भी याद रख ले। एक तरह से अब इन समूह राज्यों के लिए भी चुनौती भरा अवसर आया है कि वे अपने राज्य के युवकों को कुशल कामगार बनायें।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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