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कोरोनाः तीन महीने दुनिया के कैलेंडर से ‘हाइड’ करने पर क्यों न हो विचार

– कौशल मूंदड़ा

‘मनुष्य तू बड़ा महान है..’। जी हां, मनुष्य चाहे तो कुछ भी कर सकता है। मनुष्य ने चाहा तो 30 जून 2015 के दिन का आखिरी मिनट 60 के बजाय 61 सेकेण्ड का कर दिया। उस दिन पूरी दुनिया की घड़ियों के लिए एक सेकेण्ड बढ़ गया था। यह काम मनुष्य ने ही किया और इसे लीप सेकेण्ड का नाम दिया गया। पृथ्वी के परिक्रमण से समय का तालमेल बिठाने के लिए ऐसा किया गया।

इस उदाहरण के साथ शुरुआत करने के मायने यह है कि हम चाहें तो सबकुछ संभव है। जब एक सेकण्ड बढ़ाया जा सकता है तो घटाया भी जा सकता है। यहां एक सेकण्ड नहीं बल्कि दुनिया के कैलेण्डर से तीन महीने घटाने के मुद्दे पर बात की जा रही है। इसे घटाना कहने के बजाय ‘स्थगित’ कहा जाना ज्यादा उचित रहेगा। यह तीन महीने और कोई नहीं, कोरोना के संकटकाल वाले अप्रैल, मई और जून हैं, जिसने वर्ष 2020 में पूरी दुनिया को हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया है।

ऐसा कोई नहीं जो कोरोना की पीड़ा से बच गया हो या फायदा हो गया हो, दुनिया के हर कोने को इस कोरोना से नुकसान ही हुआ है और ‘आम आदमी’ चाहे वह भारत का हो या अमरीका का, रूस का हो या जापान का, सभी के लिए पीड़ादायी साबित हुआ है। इन तीन महीनों ने दुनियाभर के आम आदमी को झकझोर कर रख दिया है। अच्छे-अच्छों की जेब खाली हो चुकी है। सामान्य तौर पर जीवन जीने वाले मध्यम और गरीब वर्ग के लिए तो यह संकटकाल ‘घात-काल’ साबित हुआ है।

अब मान लीजिये, लॉकडाउन से ठीक पहले किसी आम आदमी ने लोडिंग टेम्पो लोन पर खरीदा, लेकिन उसके लिए तो ‘सिर मुंडाते ही ओले पड़े’ जैसी स्थिति हो गई। बिना आमद के ही ब्याज पर ब्याज चढ़ने लग गया। चाहे छोटे स्तर पर हो या बड़े स्तर पर, सभी जगह कमोबेश ऐसे हालात हैं। रही सही कसर, लॉकडाउन खुलते ही डीजल की दरों में लगातार वृद्धि ने पूरी कर दी। माना जा सकता है कि सरकार ने अपनी जेब को संतुलित करने के लिए ऐसा किया, लेकिन निचले स्तर पर जाते-जाते यह बोझ आम आदमी के माथे पर ही पड़ा। पहले ही जेब में पैसा नहीं बचा था, ऊपर से महंगाई ने कमर तोड़नी शुरू कर दी। इसका असर यह हुआ कि लोन लेकर टेम्पो चलाने वालों ने तीन महीने की कसर निकालने के लिए 10 रुपये के भाड़े को 20 रुपये कर दिया है और 2 गज दूरी दरकिनार कर दी गई है। निजी बसों, टैक्सियों का किराया तो तिगुना-चौगुना हो गया है। लोकल रेलगाड़ियां नहीं चलने से अप-डाउन करने वालों को 20 रुपये के बजाय 150 रुपये तक का किराया चुकाना पड़ रहा है। कुल मिलाकर सब तरफ से मार पड़ी है।

एक ओर वेतन-भत्ते तो कम हुए सो हुए, दुनिया भर में लाखों बेरोजगार हो गए हैं, आम आदमी के जीवनयापन पर संकट हो चला है। अभी स्थिति आमदनी ‘चवन्नी’ और खर्चा ‘रुपय्या’ वाली है। कुल मिलाकर देखा जाए तो कोरोना की चेन तोड़ते-तोड़ते बाजार में पैसा आने और जाने की चेन भी टूट गई है। ऐसे में सिर्फ एक देश के नेतृत्व को नहीं, बल्कि दुनिया के हर देश के नेतृत्व को सोचना चाहिए कि राहत की शुरुआत ‘ऊपर’ से हो। यह भी सही है कि किसी भी तरह के राजस्व की वसूली को खत्म नहीं किया जा सकता लेकिन उसकी वसूली की अवधि को तो आगे बढ़ाया ही जा सकता है।

जी, इसीलिए ऊपर लिखा गया है कि जब लीप सेकण्ड के लिए 60 के बजाय 61 सेकण्ड का मिनट हो सकता है तब पूरी दुनिया एक साथ इस कोरोना काल की सबसे खराब कही जा रही 3 माह की अवधि को दुनिया के कैलेंडर से ‘हाइड’ क्यों नहीं कर देती। यहां ‘डिलीट’ करने की बात नहीं की जा सकती लेकिन ‘हाइड’ तो किया ही जा सकता है, जैसे ही सबकुछ पटरी पर आ जाए, इन तीन महीनों को पुन: ‘शो’ मोड में लाया जा सकता है। इन्हें उदाहरण से समझा जा सकता है।

स्कूल फीस तीन माह की स्थगित करके जब भी वह बच्चा उस स्कूल से निकलने की सोचे तब इन तीन माह का हिसाब ‘बिना ब्याज के’ किया जा सकता है। इसी तरह, बैंक किस्त की वसूली इन तीन माह की स्थगित करके, जब भी लोन की अवधि पूरी हो रही है उसके फुल एंड फाइनल पेमेंट के वक्त ‘बिना ब्याज के’ लेने का प्रावधान कर सकते हैं। किन्तु, यह प्रक्रिया सफल तभी हो सकती है जब दुनिया के सबसे बड़े बैंक ‘वर्ल्ड बैंक’ से भी इसकी शुरुआत हो। वर्ल्ड बैंक खुद अपने द्वारा देशों को दिए गए कर्जों और उन पर ब्याज की वसूली को तीन माह के लिए स्थगित करे, क्योंकि यदि ऊपर से वसूली जारी रहेगी तो निचले स्तर तक किसी तरह की राहत नहीं मिल सकती। यह संभव है, यदि पूरी दुनिया का नेतृत्व इस बारे में एक साथ बैठकर विचार करे।

जो भी हो, इस पर पूरी दुनिया को विचार करना होगा, वर्ना कोरोना थम नहीं रहा है और आम आदमी का तनाव बढ़ रहा है, क्योंकि रोज-रोज का तकाजा उसे परेशान कर रहा है और आमदनी के लम्बे अरसे तक ‘चवन्नी’ से ‘अठन्नी’ होने की उम्मीद भी नजर नहीं आ रही है। हर आदमी कोरोना से ज्यादा ‘लॉक डाउन’ को कोस रहा है और कहने लगा है कि कोरोना से तो मरेंगे तब मरेंगे, अब काम-धंधा नहीं चला तो तंगी और महंगाई पहले मार डालेगी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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