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वैदिक-वैज्ञानिक ज्ञान और शस्यश्यामला धरती

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष

– आमोदकांत

हीरा गरीबी से हार गए। पैंतालीसवां बसंत देखने की आस धरी रह गई। अब नहीं रहे। कुछ दिन और जीते तो लड़कियां ब्याह दी जातीं। कितना निष्ठुर है भगवान। मन से सुखी परिवार शोक में डूबा है। हीरा को भले ही सांस की तकलीफ थी, वे हिलते-डुलते चल लेते थे। इस हालत में भी किसी से टहल-टिकोरा नहीं करवाते थे। खुद ही काम करते थे, लेकिन क्या करें, जब भगवान को यह मंजूर न था। थे तो बच्चों के सिर पर बाप का साया था। क्या मजाल कि कोई उन्हें आंख दिखाए? घर के सामने पूर्वजों द्वारा बनाए गये कुएं का मुकदमा हारने के बाद वहां से कुछ ही दूरी पर हीरा ने बड़ी मुश्किल से झोपड़ी बनायी थी। परिवार के साथ सुखपूर्वक जीवन बिता रहे थे बेचारे। हीरा ही थे जो मंदिर परिसर में लगे हैंडपंप (पहले तालाब और कुआं था) से पानी लाते थे। तर-बतर किसान का गला तर कराते थे, लेकिन अब, सबकुछ रुक-सा गया। परिवार को कौन देखेगा? ‘सुखिया’ अपनी बची-खुची जिन्दगी ऐसे-तैसे काट लेगी, लेकिन बच्चियों का क्या? कुछ ऐसी ही बातें गांव में हो रही थीं।

मैं भी हीरा के घर गया। दरवाजे पर पार्थिव शरीर धोया जा रहा था। बाल्टी भर पानी में ही काम चलाने की हिदायत दी जा रही थी। मधु और गाय के घी का लेपन और पवित्र गंगाजल से छिड़काव हो रहा था। गम का माहौल था। शरीर के अंतिम संस्कार की तैयारियों के साथ घर के भीतर से चीत्काऱ आ रही थी। तीनों बेटियां मां के पल्लू को पकड़े कातर भाव से देख रहीं थीं। कोई बेटियों के सिर पर हाथ फेरता, खुद को उनके साथ होने का एहसास कराता। ढांढस बंधाता और कोई जिन्दगी की राह आसान करने में सहयोग का कोरा आश्वासन दे रहा था। तभी, गांव के बूढ़े रासबिहारी काका की काँपती आवाज आई। अरे! कोई पीपल और तुलसी का पौधा लेने गया है क्या? अचानक, जेहन में सवाल खड़े होने लगे। शव के साथ पीपल-तुलसी क्यों? मंथन शुरू था। अजीब-सी बेचैनी थी। सवाल-दर-सवाल उठ रहे थे। परंपराओं में कितनी जान है? कितनी सार्थकता है? सृष्टि के प्रति भारतीय समाज कितना सजग है? संंशय भी था। यह अंधविश्वास तो नहीं? क्या विश्वगुरु कहलाने वाला भारतीय ज्ञान थोथा है? नकारें या स्वीकारें?

ध्यान आया कि पीपल तो देववृक्ष है। फिर समाज के एक धड़े ने अचानक इससे मुंह क्यों मोड़ लिया? ‘सुजलां, सुफलां, मलयजशीतलां, शस्यश्यामलां’ की धारणा क्यों टूट गई? इसी ने तो आजादी दिलाई है। अपने नियम-कायदे से जीने की आजादी। खुले आसमान के नीचे खुलकर सांस लेने की आजादी। शुद्ध जल पीने की आजादी, शुद्ध हवा से शरीर की प्राणशक्ति को संजोए रखने की आजादी और शुद्ध मिट्टी में होनहारों के खेलने की आजादी। फिर ऐसा क्यों हुआ? सवाल बहुत थे, जवाब भी मिले। ऋषियों से मिले ज्ञान बच्चों में आरोपित नहीं हुए। सात्विक पीपल से पुलकित-प्रफुल्लित अन्तःचेतना को ऑक्सीजन नहीं मिला। स्कन्दपुराण में वर्णित ‘अश्वत्थ’ (पीपल) और भगवान कृष्ण से अर्जुन को मिले ज्ञान ‘अश्वथः सर्ववृक्षाणाम्’ की चर्चा नहीं हुई। धार्मिक ग्रंथों में वर्णित ज्ञान (मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरि और फलों में देवताओं का निवास) नौनिहालों को नहीं मिला। तुलसी के भगवान की पत्नी के स्वरूप को स्वीकारोक्ति नहीं मिली। अन्त्येष्टि के दौरान पीपल और तुलसी को रोपने के पीछे छिपे सृष्टि के भाव की समझ ही विकसित नहीं हो सकी। शायद हमारा इस ओर ध्यान ही नहीं गया कि जिस प्रकार स्त्री-पुरुष का संयोग; सृष्टि की अक्षुण्णता के लिए आवश्यक है, वैसे ही पीपल-तुलसी का संयोग वातावरण को शुद्ध व अक्षुण्ण बनाए रखने वाला है। बरसात करवाने में सहायक है। सूखा से निजात दिलाने वाला है। फसलों को संजीवनी, पशु-पक्षियों, कीड़़े-मकोड़े और सृष्टि को तृप्ति दिलाने वाला है। इतना ही नहीं, ‘पञ्च पल्लव’ और ‘पञ्चवटी’ जैसे समूहों में शामिल वृक्ष भी पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने और पर्यावरण सुरक्षा के सभी वैज्ञानिक मानकों को पूरा करने वाले हैं।

ऋग्वेद में वर्णित ‘वृक्षों और वनस्पतियों को संरक्षक देव, सृष्टि के लिए कल्याणकारी और त्यागने से सर्वनाश बताए जाने के सबक को अगर हमने गंभीरता से लिया होता तो हम जानते कि हजारों वर्ष पूर्व स्थापित व्यवस्था, सृष्टि-कल्याण वाली है। पीपल रोपण से वंश परम्परा के जोड़ने के पीछे के भाव को समझते। जबतक वनस्पतियां हैं, तब तक ही जीवन है, पर मंथन कर एक निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश करते। अश्वत्थोपनयनव्रत में महर्षि शौनक और अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद में वर्णित पीपल के औषधीय गुणों को अनदेखा करने की हिमाकत नहीं करते।

सवाल यह है कि क्या हम निष्ठुर हो गए हैं? हंसी-खुशी जीवन बिताने के बाद आने वाली पीढ़ियों को घुट-घुटकर जीने को छोड़ दें? उम्र के अंतिम पड़ाव में जीवन को सरल बनाने वाली पीपल की नई कोपलों को देखने के बाद भी हम नहीं जान पाए कि नौनिहाल ही सृष्टि के भावी संरक्षक हैं। इन्हें भारतीय ज्ञान की गूढ़ता जानने का हक है। हां, हम ही दोषी हैं।

वैज्ञानिक शोधों से सिद्ध है कि वनस्पतियां कार्बन डाईआक्साइड पीती हैं, ऑक्सीजन छोड़तीं हैं। फिर, 24 घंटे ऑक्सीजन देने वाले पीपल के गुण को युवाओं तक हम क्यों नहीं पहुंचा पाए? अधिक ऑक्सीजन देने वाली तुलसी की चर्चा हमने अपने नौनिहालों से क्यों नहीं की? युवा अगर पीपल-तुलसी के इन गुणों को जानते तो शायद सूरत इतनी भयावह नहीं होती। ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत नष्ट होने की आशंका, पानी की किल्लत, सूखा जैसी समस्याएं नहीं आईं होतीं। शायद, मानव शरीर मे पाई जाने वाली प्रतिरोधी क्षमता भी कम नहीं हुई होती और हम कोरोना जैसी महामारी से इतनी बड़ी संख्या में प्रभावित होने से बच भी जाते। इसलिए, वस्पतियां पूजनीय हैं।

हमारी रक्षा करने वाला ही तो भगवान कहा जाता है। भले ही हमने भगवान के विविध रूप दे दिए हों, लेकिन वास्तविक रूप से प्रकृति ही तो प्राणीमात्र की रक्षा करती आ रही है। सोचिए, ऑक्सीजन नहीं होता तो क्या धरती पर जीवन संभव था? शायद नहीं। इसलिए भारतीय समाज में स्थापित पीपल के देव स्वरूप को अगर अस्वीकार करने की हिमाकत नहीं करते तो शायद ऐसी समस्याएं भी नहीं होतीं। मध्य प्रदेश, मराठवाड़ा, लातूर, बुंदेलखंड की विभीषिका होती ही नहीं। अगर संसार के कुछ देशों ने भारतीय ज्ञान के खिलाफ दुष्प्रचार कर इसे थोथा सिद्ध करने का कुत्सित प्रयास न किया होता, तो शायद सभी सुकून और सुरक्षित जीवन बिता रहे होते।

अब हालात ऐसे हैं कि देश-विदेश के सेफजोन भी ऐसी समस्याओं की चपेट में आने लगे हैं। मरुस्थलीय क्षेत्र बढ़ रहे हैं। जलस्तर तेजी से गिर रहा है। पीने के शुद्ध पानी की कमी हो रही है। बाढ़ की विभीषिका ने सबको चपेट में लेना शुरू कर दिया है। धरती का क्षरण हो रहा है। प्रदूषण बढ़ता जा रहा है और समस्याएं मुंह चिढ़ा रही हैं।

ऋषियों के विचार हजारों पूर्व के हैं, जब धरती वनों से आच्छादित थी। बाढ़ की समस्या नहीं थी। ग्लोबल वार्मिंग का नाम भी नहीं था। सूखा, शायद ही कोई जान रहा था। प्रदूषण का नाम-ओ-निशान नहीं था। बावजूद इसके विचार पूरी तरह वैज्ञानिक थे।

पर्यावरणविद् श्रीमती प्रत्यूष पिङ्गिता कहना है कि विज्ञान भी अब यह बता रहा है कि तुलसी-पीपल में जीवाणुओं-रोगाणुओं को नष्ट करने की क्षमता है। पर्यावरण संरक्षण और संतुलन बनाने वाला है। जड़ें मृदा-अपरदन से बचाती हैं तो भू-गर्भीय जल-स्तर को भी संतुलित रखती हैं। पीपल के पत्ते की जालीनुमा संरचना वायु-शोधन करती है। इनकी मानें तो कनाडा नेशनल एनवायर्नमेंटल एजेंसी भी इस बात की पुष्टि करती है कि एक साल में महज 12 किलोग्राम कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करने वाला साधारण वृक्ष तकरीबन 117 किग्रा ऑक्सीजन ही उत्सर्जित करता है, जबकि सीडीआरआई (सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टिट्यूट) की रिपोर्ट के मुताबिक एक पीपल 2250 किलोग्राम कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित कर 1800 किलोग्राम प्रति घंटा के हिसाब से ऑक्सीजन देता है। यानि साधारण वृक्ष हर साल जहां केवल चार वयस्कों को जीवन देने में सक्षम हैं, वहीं पीपल का एक वृक्ष एक वर्ष में लगभग एक करोड़ 55 लाख 52 हजार किलोग्राम ऑक्सीजन देकर 62 वयस्कों को जीवन देने वाला है।

जरा सोचिए, एक मृत शरीर के लिए लगाया जाने वाला एक पीपल, 62 लोगों के जीवन भर ऑक्सीजन देता है, तो भला पर्यावरण सुरक्षा में हम इतने लापरवाह क्यों और कैसे हो सकते हैं? क्या हमने अपने मूल विचार को छोड़कर उस थोथे ज्ञान पर भरोसा नहीं किया, जिन तथाकथित बुद्धिजीवियों और ज्ञानियों ने भारतीय ज्ञान को ही थोथा साबित करने में अपना पूरा जीवन खपा दिया। हमें उस वैज्ञानिक विचार से दूर रखने में महती भूमिका निभाई, जिससे न सिर्फ मानव जाति की रक्षा होती बल्कि सृष्टि अक्षुण्ण बनी रहती? अगर हमने अपने मूल विचार पर भरोसा बनाये रखा होता तो निश्चित ही आज वातावरण को सुरक्षित और स्वच्छ रख सके होते। अंतिम संस्कार में शवदाह स्थल तक ले जाने वाले पीपल और तुलसी का रोपण कर वन क्षेत्र को घटने न दिया होता। इसके लिए न हमें अभियान चलाना पड़ता और न ही अपनी गलतियों को छिपाने के लिए अन्य देशों पर दोषारोपण करने का अवसर ही खोजते। शवदाह स्थलों पर आरोपित पौधों की देखभाल करने के संकल्प के प्रति सतर्क हो गए तो एक पीपल के वृक्ष के माध्यम से 62 लोगों को जीवन और आने वाली पीढ़ियों को ‘स्वस्थ-सुखी’ जीवन दे सकते हैं। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की भावना बलवती कर सकते हैं।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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