Home Sliderखबरेविशेष खबर

प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था पर अमल से रुकेगा पलायन

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पते की बात कही है कि वे अपने राज्य से मजदूरों का पलायन नहीं होने देंगे। बिल्कुल सही बात है। ऐसा होना भी चाहिए। देश के अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी कुछ इसी तरह का संकल्प व्यक्त करना चाहिए। जनता को इस बात का भरोसा होना चाहिए कि पेट की भूख शांत करने के लिए उन्हें और किसी राज्य में जाने की जरूरत नहीं है। उनका राज्य सक्षम है। कोरोना वायरस के चलते महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और मध्य प्रदेश से मजदूरों का पलायन हुआ है। ये मजदूर बड़ी तादाद में अपने गृहराज्य पहुंचे हैं। बहुतेरे रास्ते में हैं और बहुतेरे मानस बना रहे हैं कि अपने गांव-जवार के लिए निकलें या यहीं पड़े रहकर कोरोना वायरस के संक्रमण से बचें। जब मजदूर दूसरे राज्यों में थे। दूसरे देशों में थे तब भी गांवों में रोजगार के सीमित अवसर थे और आज भी कमोबेश वैसे ही हालात हैं।

राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी ने कहा था कि ‘है अपना हिंदुस्तान कहां, वह बसा हमारे गांवों में।’ महात्मा गांधी भी यही कहा करते थे कि भारत की आत्मा हमारे गांवों में बसती है। आजादी के पहले तक जो गांव शहरों को ऑक्सीजन दिया करते थे, वे गांव अचानक इतने विपन्न कैसे हो गए, यह अपने आप में बड़ा सवाल है? ऐसा नहीं कि आजादी के बाद से गांवों के बारे में सोचा नहीं गया। गांवों के विकास की योजनाएं भी खूब बनीं। संसद और राज्य विधानसभाओं से भी साल दर साल गांवों के विकास के लिए बजट पास होते रहे लेकिन गांवों की व्यवस्था में कोई खास तब्दीली नहीं आई। 15 अगस्त 1947 से 31 मार्च 1948 तक के लिए पेश देश के पहले बजट में खाद्यान्न मामले में आत्मनिर्भर बनने की चिंता शिद्दत के साथ महसूस की गई थी। 2012-13 में कृषि ऋण का लक्ष्य 1 लाख करोड़ रुपये से बढ़ाकर 5 लाख 75 हजार करोड़ रुपये कर दिया गया। 2013 में कृषि बजट में 22 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी, लेकिन ऋण-ग्रस्त स्थिति से किसानों का जीवन स्तर बेहतर बनाने के लिए या कृषि के लिए कोई ठोस और टिकाऊ पहल नहीं की गई। युवाओं के लिए कौशल विकास के लिए 1 खरब रुपये आवंटित किए गए थे, जबकि गरीबों के लिए देश भर में प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना शुरू करने का वादा किया गया था। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक को पारित किया गया और खाद्य सब्सिडी पर आने वाली लागत को पूरा करने के लिए 10 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया। ग्रामीण विकास के लिए बजट में 46 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

2014 से अबतक का सरकार का बजट गांव, किसान और मजदूर को समर्पित रहा है। इससे गांवों में भी कुछ रौनक बढ़ी है। मतलब अगर पैसों से ही गांव का विकास होना होता तो कब का हो चुका होता। विकास के लिए जरूरी तत्व है उचित नीति और उसका क्रियान्वयन। सरकार ने योजनाएं तो बनाईं लेकिन उसपर अमल कितना हुआ, इसकी मॉनीटिरिंग नहीं हो पाई। अधिकारियों ने अगर गांव के विकास के लिए आजादी के बाद से आजतक स्वीकृत बजट का ही सही उपयोग कर दिया होता तो भी आज ग्राम पंचायतों की तस्वीर कुछ और होती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से अपील की थी कि हर सांसद एक गांव गोद लें और उसे सभी सुविधाओं से युक्त मॉडल गांव बनाएं। अगर ऐसा भी कुछ हुआ होता तो पांच साल में 787 गांव विकसित हो गए होते। राज्य विधानसभा और विधान परिषद् के सदस्यों ने भी अगर इस अपील पर ध्यान दिया होता तो बहुत सारे गांव न केवल आत्मनिर्भर हो चुके होते बल्कि देश-विदेश से कोरोना और लॉकडाउन के चलते आ रहे लोगों का सहारा बनते।

इसमें संदेह नहीं कि उत्तर प्रदेश सरकार ने लाखों मनरेगा मजदूरों के खाते में 611 करोड़ रुपये डाले हैं। वह निरंतर उनकी मदद कर रही है। केंद्र सरकार ने मनरेगा मजदूरों की मजदूरी भी दो गुना से ज्यादा कर दी है लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है। केंद्र सरकार किसानों के खाते में पैसे डाल रही है, इससे तात्कालिक राहत तो मिल सकती है लेकिन स्थायी राहत के लिए जरूरी है कि उत्तर प्रदेश सरकार की एक जिला-एक उत्पाद योजना को बढ़ाया जाता। उत्तर प्रदेश ही क्यों, इस योजना को देश के सभी राज्यों में प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए। इससे जिले के मजदूरों को वहां काम मिलेगा। बेहतर होता कि सभी राज्यों के सभी जिलों में कुटीर उद्योगों की शृंखला आरंभ की जाती। जिले में या जिले के बाहर उनके कुटीर उत्पादों के विपणन की व्यवस्था सुनिश्चित की जाती। यह अच्छी बात है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लघु एवं मध्यम उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए उनके संचालकों को दो हजार करोड़ से अधिक का ऋण वितरित किया है। यह एक स्वस्थ पहल है लेकिन राज्य सरकार को यह भी विचार करना होगा कि जो ऋण दिए जा रहे हैं, उनकी समयबद्ध वापसी भी हो।

उत्तर प्रदेश सरकार का दावा है कि जितने भी प्रवासी मजदूर बाहर से आ रहे हैं, उन्हें मनरेगा के कामों में लगाया जा रहा है लेकिन गांवों में मनरेगा के कामों के लिए गुंजाइश ही कितनी है? ग्राम समाज की भूमि पर या तो गरीबों के पट्टे हैं या कब्जे हैं। अमूमन तो गांवों में ग्राम समाज की भूमि बची ही नहीं है। मनरेगा कार्य हो भी तो कहां से? तालाब पहले से ही खुदे पड़े हैं या खुदे ही नहीं हैं। उनका अस्तित्व कागजों में ही है। ऐसे में इतने मजदूरों को काम पर लगाना अपने आप में बेहद चुनौती है। कृषि भूमि पर रियल एस्टेट की नजर पड़ चुकी है। पहले से ही बड़ी जोत के किसानों का टोटा था। अब कृषि भूमि पर कंक्रीट के जंगल बन रहे हैं। किसानों को बचाना है तो उन्हें रियल एस्टेट की बुरी नजरों से बचाना होगा वर्ना आत्मनिर्भरता का अंतिम सहारा भी हाथ से छिन जाएगा। बेरोजगारी की समस्या से निपटने का एक ही मार्ग है कि जीटी रोड, एक्सप्रेस वे के किनारे खाली पड़ी जमीनों पर कुछ बड़े कल-कारखाने खुलवाएं जाएं और ऐसा हर जिले में हो। सरकार का प्रयास है कि चीन से कोरोना जन्य विवाद के चलते जितनी विदेशी कंपनियां अपने उद्योग शिफ्ट करें, वे उत्तर प्रदेश में आए। मुख्यमंत्री खुद इसकी निगरानी करने वाले हैं। वे संबंधित देशों के राजदूतों से वार्ता भी करेंगे। इस बावत रोजगार संगम भी आयोजित किए जा रहे हैं। यह एक अच्छा संकेत है। मुख्यमंत्री ने विदेशी कंपनियों को आकर्षित करने के लिए इंडस्ट्रियल लैंड पूल बनाने के भी निर्देश दिए हैं। उत्तर प्रदेश में इससे पहले भी इन्वेस्टर समिट हो चुके हैं लेकिन नतीजा नौ की लकड़ी-नब्बे खर्च वाला ही रहा है।

चीन की कंपनियों से निकलने वाली औद्योगिक इकाइयों को अपने यहां स्थापित कराने पर कई राज्यों की नजर है। बड़ा सवाल यह है कि कोई भी विदेशी कंपनी राज्य के छोटे जिलों में अपने कारोबार क्यों शिफ्ट करेगी? उसकी पहली पसंद तो नोएडा, लखनऊ ही होगा। अगर ऐसा है तो जिलों से मजदूरों का पलायन कैसे रोका जा सकेगा? सरकार अगर यह सोचती है कि मनरेगा में सभी मजदूरों को काम मिल जाएगा तो यह भी उसका दिवास्वप्न ही है। देश में 13.62 करोड़ मनरेगा जॉब कार्डधारक हैं, इनमें 8.17 करोड़ जॉब कार्डधारक सक्रिय हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि लॉकडाउन के समय इन मजदूरों के सामने भी रोजी-रोटी का उतना ही संकट है, जितना दूसरे राज्यों में काम कर रहे मजदूरों के सामने है। अकेले उत्तर प्रदेश में 80 लाख से अधिक मनरेगा कार्डधारक हैं। उत्तर प्रदेश के 80 लाख दिहाड़ी श्रमिकों के लिए योगी सरकार ने ‘मनी एट होम’ योजना आरंभ की है। इस योजना के तहत कोरोना वायरस के कारण प्रभावित दिहाड़ी मजदूरों के बैंक खातों में 1000-1000 रुपए की राशि डाली जा रही है। इस महंगाई के दौर में एक हजार रुपये घाव पर मरहम तो लगा सकते हैं लेकिन पूरी राहत नहीं दे सकते। उत्तर प्रदेश के श्रम विभाग में पंजीकृत मजदूरों की संख्या 20 लाख से ज्यादा है, तो विकास विभाग के 16 लाख दिहाड़ी सफाई कर्मचारी हैं। 58,000 से ज्यादा ग्रामसभाओं में से सरकार की योजना मनी एट होम के लिए हर गांव से 20-20 मजदूर शामिल करने की है। शासन के निर्देश पर मनरेगा के तहत बुंदेलखंड के 2903 ग्राम पंचायतों में से 2672 ग्राम पंचायतों में 2,11,048 मजदूरों को काम दिया गया है। अगर ऐसा पश्चिमांचल, पूर्वांचल में भी होता है तो इससे सोशल डिस्टेंसिंग के सिद्धांत को नुकसान तो होगा ही।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में 57,607 गांव हैं। 815 विकास खंड हैं जिनके ऊपर 52905 ग्राम पंचायते हैं। सर्वाधिक 4 हजार गांव आजमगढ़ जिले में हैं। सबसे कम 323 गांव बागपत जिले में हैं। भारतीय स्टेट बैंक से संबंद्ध अर्थशास्त्रियों के दावों पर गौर करें तो उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा रेहड़ी-पटरी वाले हैं, जो देश की कुल संख्या के मुकाबले एक चौथाई हैं। केंद्र सरकार ने कोरोना वायरस महामारी की रोकथाम के लिए लागू लॉकडाउन से प्रभावित रेहड़ी पटरी वालों के लिए 5 हजार करोड़ रुपये की विशेष ऋण सुविधा का ऐलान किया है। दस राज्यों में 35 लाख से 50 लाख रेहड़ी पटरी वालों को इस योजना से फायदा होगा। उन्हें अपना व्यापार फिर शुरू करने के लिए 10 हजार रुपये का कर्ज मिलेगा। उत्तर प्रदेश में 7.8 लाख रेहड़ी पटरी वाले हैं, जबकि पश्चिम बंगाल में इनकी संख्या 5.5 लाख है। बिहार में 5.3 लाख रेहड़ी पटरी वाले, राजस्थान में 3.1 लाख, महाराष्ट्र में 2.9 लाख, तमिलनाडु में 2.8 लाख, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में 2.1 लाख, गुजरात में दो लाख, केरल और असम में 1.9 लाख, ओडिशा में 1.7 लाख, हरियाणा में 1.5 लाख और मध्य प्रदेश तथा पंजाब में 1.4 लाख रेहड़ी पटरी वाले हैं। सरकार ने अगर कहा है कि वह अपने राज्य से पलायन नहीं होने देंगे तो जरूर उसने सोच-विचार किया होगा लेकिन हमें अपनी प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था की ओर रुख करना चाहिए। जिसमें गांव के सभी लोगों के अपने पारंपरिक कार्य होते थे। गांव की जरूरत का हर सामान गांव में ही मिल जाता था। आज गांव शहरों के अधीन हो गए हैं। वे पराश्रित हो गए हैं। राजतंत्र में एक राज्य के अधीन अगर सौ गांव होते थे तो उसमें एकाध शहर होता था। उन गांवों से ही पूरे राज्य की अर्थव्यवस्था चला करती थी। हमें गांवों को उसी संपन्नता की ओर ले जाना होगा और इसके लिए व्यापक दृष्टि की जरूरत होगी। इसके लिए चाणक्य का अर्थशास्त्र पढ़ना होगा। मनु की अर्थव्यवस्था पढ़नी होगी। तत्कालीन पंचायत व्यवस्था पर गौर करना होगा तभी हम पलायन रोक पाएंगे।

अत्यधिक कमाने की होड़ नेसब गड्ड-मड्ड किया है, हमें अपनी शिक्षा के दोष भी देखने होंगे और यह देखना होगा कि हमारी शिक्षा में विद्या का स्थान कहां है? वह विद्या जो विमुक्त करती है। जो धन देती है। यश देती है। भोग का कारक बनती है। जो मोक्ष की ओर ले जाती है। यह सब करने के लिए गांवों को समझना होगा। वातानुकूलित कमरों में बैठकर जबतक इस देश के अर्थशास्त्री चिंतन करते रहेंगे तबतक गांवों की न तो तो व्यवस्था सुधरेगी और न ही वहां से पलायन रुकेगा। उद्योगपतियों को भी गांवों को लक्ष्य कर अपने उद्योग लगाने होंगे जिससे कि उसके दस किलोमीटर के दायरे के श्रमिक वहां आ सकें। काम करें और अपने गांव, परिवार, समाज और राष्ट्र के चेहरे पर खुशहाली ला सकें।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

Tags

Related Articles

Back to top button
Close