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आत्मनिर्भरता के लिए चाहिए जीवंत भारत!

– गिरीश्वर मिश्र

इसमें कोई संदेह नहीं कि बदलते वैश्विक समीकरण में भारतवर्ष के लिए आत्मनिर्भर होना सबसे अच्छा विकल्प है। इस प्रकार का शुभ संकल्प देश के गौरव और क्षमता की वृद्धि के लिए सर्वथा स्वागत-योग्य है। इस आत्मनिर्भरता की पुकार है कि भारत में जागरण का प्रवाह हो और एक सुसंगठित सामाजिक संरचना के रूप में भारत एक जीवंत इकाई बने। देश एक प्राणवान सत्ता है-एक जीवित प्राणी! इस रूप में देश का एक व्यक्तित्व है। कोई भी देश वहां के निवासियों के समुच्चय से बनता है पर सिर्फ लोगों के इकट्ठा होने मात्र से देश नहीं बन जाता। समग्र की जीवंतता मनुष्यों के योग मात्र से अधिक है, वैसे ही जैसे चैतन्य के बिना शरीर मात्र शव रहता है, निर्जीव और अस्वास्थकर और उसमें चैतन्य के निवेश से शिवत्व की प्रतिष्ठा होती है और यह शरीर सक्रिय होकर उत्कर्ष की ओर उन्मुख होता है। यह एक रोचक और प्रेरक तथ्य है कि जीवंतता का एक प्रखर रूप वैदिक काल में मिलता है जो भारत के ज्ञात इतिहास का उषाकाल कहा जाता है।

शतपथ ब्राह्मण की मानें तो जातिगत रूप से भारतवासी भरत नाम वाली अग्नि के उपासक समुदाय के वारिस हैं (भरतो अग्नि इत्याहु: ) अर्थात तेज उनका आंतरिक गुण है। यह संभरण करने वाली आग है। यजुर्वेद यह संकल्प लेता है-वयं राष्ट्रे जागृयाम: अर्थात हम सब अग्रसर होकर राष्ट्र को जागृत करें। अथर्व वेद की घोषणा है कि उत्तम प्रजा जनों से राष्ट्र उत्तम रहता है (उत्तरं राष्ट्रं प्रजयोत्तरावत )। रोचक तथ्य यह भी है कि वैदिक युग में भी सामाजिक विविधता थी, अनेक भाषा बोलने वाले और अनेक धर्मों को मानने वाले थे (जनं विभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणां पृथिवी यथौकसम ) परंतु सभी मिलकर मातृभूमि को शक्ति देते हैं और उसकी समृद्धि करते हैं। उनके मन में यह भावना है कि यह धरती मां है और हम सब उसकी संतान हैं- माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या: । अथर्व वेद में ‘समानो मंत्र: समिति: समानी समानं ब्रतं सह चित्तमेषां ‘ आदि मंत्रों का स्पष्ट अभिप्राय राष्ट्र की सजीव एकता को रेखांकित करता है। विचार, संकल्प, चित्त सबमें समान होने का आह्वान है। समान मन के साथ ऐक्य भाव से आनंदपूर्वक रह सकना संभव है- समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति। तात्पर्य यह कि जीवंत राष्ट्र की अपेक्षा है ऐक्य और पारस्परिक सम्मान के भाव के साथ देश के प्रति उन्मुख होकर सक्रिय और स्वस्थ जीवन।

सजीव देश की परिकल्पना लोकमंगल के आख्याता गोस्वामी तुलसीदास ने रामराज्य के रूप में की थी, जिसमें सभी जन धर्मानुकूल आचरण करते हैं और बिना राग-द्वेष के सुखपूर्वक रहते हैं (राम राज राजत सकल धरम निरत नर नारि , राग न रोष न दोष दुख सुलभ पदरथ चारि )। इस तरह के रामराज्य में किसी भी तरह का ताप या कष्ट किसी को नहीं है और सबके बीच परस्पर प्रेम है और सभी स्वधर्म के अनुसार आचरण करते हैं- दैहिक दैविक भौतिक तापा राम राज्य काहू नहिं व्यापा , सब नर करहिं परस्पर प्रीति चलहिं स्वधर्म निरति श्रुति नीति।’ आधुनिक भारत में बंकिम बाबू ने 1876 में ‘बंदे मातरम्’ गीत में सुजलाम्, सुफलाम् , मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलाम् मातरम् द्वारा देश की जीवंत संकल्पना प्रस्तुत की थी। इसी प्रकार 1909 में महात्मा गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में अंग्रेजी दासता से मुक्त स्वतंत्र भारत का एक स्वप्न खींचा था और उसके लिए अपने को अर्पित कर दिया था। वे अपने ऊपर राज्य करने की , स्वायत्त जीवन की बात कर रहे थे। यह अलग बात है कि स्वतंत्र होने पर शासन का अर्थ हमने प्राय: वही लगाया जो अंग्रेजों के व्यवहार में था और बापू ने जन भागीदारी, स्वावलम्बन, विकेंद्रीकृत शासन और शिक्षा, स्वास्थ्य , न्याय आदि के क्षेत्र में जिस तरह के बदलावों के बारे में सोचा था वह व्यवहार में नहीं आ सका। हमारी अपनी सोच की भारतीय परिपाटी नहीं बन सकी। गरीबी-अमीरी की खाई बढ़ती गई और विकसित देशों को छू लेने की मृगमरीचिका और बदलती वैश्विक परिस्ठिति ने हमें कई घाव दिए। आज जब हम आत्मनिर्भरता की बात कर रहे हैं तो उसके लिए जरूरी होगा कि देश को जीवंत बनाया जाय।

आज की परिस्थिति में सोचते हुए देश की जीवंतता एक बहुस्तरीय और बहुआयामी संकल्पना प्रतीत होती है। हम यहां इसके आर्थिक, भौतिक, बौद्धिक , सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक पक्षों पर विचार करेंगे। इन सभी पक्षों के बीच पारस्परिक अंत:सम्बंध हैं और जिन्हें व्यक्ति, समुदाय और देश के स्तर पर पहचाना जा सकता है। स्मरणीय है कि जीवंतता एक सकारात्मक अवधारणा है। ठीक वैसे ही जैसे रोग का अभाव ही स्वास्थ्य नहीं है। स्वस्थ व्यक्ति सक्रिय रहता है और उत्पादक कार्यों में संलग्न होता है। उसी तरह जीवंतता सकारात्मक पक्षों की उपस्थिति को द्योतित करती है। जीवंत होने की स्थिति में जन आकांक्षाओं और समस्याओं का समाधान शीघ्रता से होगा और चुनौतियों का सामना गुणवत्तापूर्ण ढंग से किया जायगा। उसमें अपेक्षित लचीलापन और प्रतिरोध की क्षमता भी होगी। वह निष्क्रिय या स्पंदनहीन नहीं होगा। यदि आर्थिक दृष्टि से देखें तो जीवन स्तर , औद्योगिक उत्पादन, व्यापार में लाभ , निर्यात , सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) तथा रोजगार की उपलब्धता आदि इसके ज्ञापक हो सकते हैं। स्पष्ट ही राजनैतिक नेतृत्व की बड़ी भूमिका है। वर्तमान नेतृत्व ने जीएसटी लागू कर, गरीब जनों को सीधे उनके खाते में सहायता राशि पहुंचाने की व्यवस्था कर और उनके लिए सस्ते भवन के निर्माण कर महत्वपूर्ण पहल की हैं परंतु सामाजिक सुरक्षा का कवच कई मोर्चों पर कमजोर भी हुआ है। जब हम भौतिक पक्ष पर विचार करते हैं तो अनेक ऐसे पक्ष सामने आते हैं जिनपर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक सुविधाओं और उपायों को देखें या फिर स्त्रियों, बच्चों और वृद्धों के लिए आवश्यक व्यवस्था को देखें तो अनेक कठिनाइयां दिखती हैं। सामान्य जनों के दैनिक जीवन में जरूरी नागरिक सुविधाओं को सुगमता से उपलब्ध कराना अभी भी टेढ़ी खीर है।

बौद्धिक या मानसिक दृष्टि से देखें तो शिक्षा संस्थाओं की संख्या में तो वृद्धि हुई पर गुणवत्ता के साथ हम समझौता करते गए। शिक्षा की विषय वस्तु और पद्धति को लेकर अभीतक यह स्पष्टता नहीं आ सकी है कि हम अपने देश के लिए किस तरह का समाज चाहते हैं और किन मूल्यों को स्थापित करना चाहते हैं। उच्च शिक्षा बिना विचारे अधिकांशत: पश्चिमी देशों के मॉडल पर फलफूल रही है और विदेशों में जो हो रहा है उसकी छाया में उसी की प्रतिलिपि तैयार करने में जुटी है। उसका सारा ज्ञान विषयक माल ताल विदेश से ही आता है। उसकी भारतीय समाज और संस्थाओं से दूर का रिश्ता होता है और वह बहुलांश में भारत से अपरिचय को बढ़ाने में मदद दे रही है क्योंकि भारत को अस्वीकार करना ( या न जानना) उसके मूल में है। ज्ञान का सांस्कृतिक अनुबंधन जानते हुए भी हम यहां के समाज और ज्ञान को हीन मानते हुए विदेशी ज्ञान जाल की पकड़ को ही सुदृढ किए हुए हैं। यह पूरी प्रक्रिया मौलिकता और सृजनशीलता के विरुद्ध जा रही है। जबतक शिक्षा को निजी और सामाजिक विकास के लिए भारतीय संदर्भ में प्रासंगिक और मूल्यपरक नहीं बनाएंगे, बात नहीं बन सकेगी। राजनैतिक-सामाजिक दृष्टि से विधायिका , न्यायपालिका और कार्यपालिका की कार्यप्रणाली और उसकी कार्यक्षमता को लेकर अनेक मोर्चों पर असंतुष्टि जाहिर होती रही है। जरूरी सुधारों की गति धीमी है और जटिलताएं बढ़ती जा रही हैं। सामाजिक स्तर पर जिस समावेशी दृष्टि की जरूरत है उसमें पिछड़ने के कारण सौमनस्य की दृष्टि से सामाजिक ऊर्जा का समुचित उपयोग न होकर उसका क्षरण-सा होने लगता है जिसका लाभ लेते हुए विभिन्न राजनैतिक दल देशहित को भुलाते हुए तात्कालिक लाभ की सोचने लगते हैं। राजनैतिक विमर्श का स्तर और प्रयोजन धूमिल होने लगता है और देश हित पृष्ठभूमि में तिरोहित होने लगता है।

आज आवश्यकता है कि हम क्षुद्र स्वार्थ, निष्क्रियता, आलस्य, अलगाव, नकारात्मकता, प्रतिक्रियावादिता और भाग्यवादिता जैसे मनोभावों से बचें और आशावादी दृष्टि के साथ नवाचार, भरोसे वाले, ऊर्जस्वित और भविष्योन्मुख दृष्टिकोण अपनाएं जिससे सशक्तिकरण और उत्पादकता में वृद्धि हो, तभी जीवन संतुष्टि बढ़ेगी और देश की उन्नति होगी। ऐसा जीवंत भारत ही आत्मनिर्भर हो सकेगा।

(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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