बिहार : एंबुलेंस की नहीं मिली सुविधा, तो पति को पीठ पर लाद कर घर के लिए निकल पड़ी महिला.
पटना, सनाउल हक़ चंचल-14 जून :सासाराम : फिर वही बात हो गयी. लगभग वही पुराना दृश्य. हां! अब तक देश के अलग-अलग हिस्सों में गरीब व लाचार लोगों द्वारा उनके परिजनों के शवों को कभी कंधे पर, तो कभी साइकिल पर ले जाते देखा-सुना गया था, पर इस बार बात थोड़ी अलग थी. इस बार शहर के एक नर्सिंग होम में इलाज के बाद वापस घर जाने के लिए एंबुलेंस या किसी दूसरे वाहन की व्यवस्था नहीं होने पर एक महिला ने अपने बीमार पति के लिए खुद को ही एंबुलेंस बना दिया. वह बीमार पति को अपनी पीठ पर ही उठा कर घर के लिए निकल पड़ी।
कुछ लोगो को दया आयी, तो लोगों ने रुपये से भी की मदद
आंखों से लगातार आंसू के बूंद टपक रहे थे. देखनेवाले सभी हतप्रभ थे. कुछ लोगों को दया आयी, तो रुपये से मदद भी की. लेकिन, यह मदद नाकाफी थी. मदद इतनी नहीं थी कि उस पैसे से एंबुलेंस का जुगाड़ किया जा सके. रुपये मिलने पर बाद में उसने बस पड़ाव तक के लिए एक रिक्शे का सहारा लिया. घटना मंगलवार की शाम शहर के रौजा रोड इलाके की है. बीमार व्यक्ति का नाम पूर्णवासी खरवार बताया जा रहा है. वह कैमूर जिले के कुदरा थाना क्षेत्र स्थित सकरी गांव का रहनेवाला है।
करीब 15 दिन पहले एक हादसे में महिला के पति का पैर हुआ था जख्मी।
एंबुलेंस या किसी दूसरे साधन-वाहन के अभाव में पूर्णवासी की पत्नी संगीता देवी ने पति को अपने ही बूते वापस लेकर जाने के लिए खुद को तैयार किया. पति को अपनी पीठ पर लाद कर रोते-सुबकते चल पड़ी. पूछे जाने पर संगीता ने बताया कि करीब 15 दिन पहले उसके पति का एक पैर एक दुर्घटना में जख्मी हो गया था. कई जगह इलाज कराने के बावजूद जब सुधार नहीं हुआ, तो शहर के विकास नर्सिंग होम में भरती कराया गया.
इलाज में अधिक खर्च होने के कारण नहीं बचे थे रुपये
इलाज में खर्च अधिक हो जाने के कारण अब उसके पास इतने रुपये भी नहीं थे कि वह बस का किराया तक दे सके. वैसे, उसके दिमाग में यह बात अवश्य थी कि आरजू-मिन्नत कर वह किसी तरह बस से ही अपने गांव पहुंच सकती थी. इसलिए पति को पीठ पर ही उठाये हुए वह बस स्टैंड के लिए निकल पड़ी. वैसे, निजी अस्पताल प्रबंधन में भी अगर इच्छा शक्ति होती, तो सरकारी एंबुलेंस मंगा कर भी उसकी मदद कर सकता था. लेकिन, शायद अब उसका अपना काम हो चुका था. इलाज के पैसे वसूलने के बाद कौन मरीज कैसे घर लौटेगा, इसकी चिंता करना शायद वे जरूरी मानते ही नहीं.
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